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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ७ ] સમીક્ષાભ્રમાવિષ્કરણ [२४५] करेला अर्थ पुष्टि आपतो चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली भगवान शयम्भवरि महाराजे रचेल दशवैकालिकसूत्रनो चूलिकानो पाठ जुओ:" अमज्जमांसासि अमच्छरीय अभिक्खणं निव्विगइं गया अ । अभिक्खिणं काउस्सग्गकारी, सज्झायजोगे पययो हविज्जा ॥ ७ ॥ "" अर्थ- मांस अने मदिराना त्यागी, परसंपत्तिमां द्वेषरहित, वारंवार विगइनो त्याग करनार, अर्थात्-पुष्टालंबने कदाचित् वापरनार पुनः पुनः कायोत्सर्ग करनार मुनि स्वाध्याय योगमां उद्यमवन्त रहे । अनुक्तसमुच्चायक चकार मानवाथी मध अने माखणना त्यागी, एवो अर्थ पण जोडी शकाय । आ पाठमां विगइ अने काउस्सग्गमां वारंवार अर्थने जणावनार ' अभिक्खणं ' शब्दनी योजना करी छे. परंतु मांस मदिरामां नहि. अत एव अमो जे अर्थ करी आव्या छीप तेने आ पाठ पूरेपूरो टेको आपे छे । सकलमुनिवरोने विगईओनो निषेध केम नहि ? विगइओ विकृति करी दुर्गतिमां लई जनार छे तो पछी सकल मुनिवर्गने तेनो निषेध करवो जोइए, आम नहि करता यौवनवनमां विचरता, रोगमुक्त, बलिष्ठ देहवाळाने ज माटे केम कर्यो ? शुं अन्य मुनिवरोने उपर्युक्त दोषथी बचाववा नथी ? आ कल्पसूत्रनो पाठ विगइ निमित्ते थती जे चित्तनी विकृति अने तेने लइने थती जे दुर्गति तेनाथी बचाववा माटे छे. आ विकृतिनी संभावना प्रायः उपर्युक्तमां छे, कारण के जे माणस जुवान छे, नीरोगकाय छे अने ली बलिष्ठ छे, तेवो माणस वारंवार जो विगइओ खाय तो चित्तनी विकृति थाय ए स्वाभाविक छे, अने दुर्बल, वृद्ध, ग्लान अने तपस्वी वगेरेने विगइओ वापरवामां प्रायः विकृतिनो संभव नथी, एटलुंज नहि परंतु धर्मसाधन शरीरने टकावी राखवा सहायक बने छे, कारण के ज्यां मूळ शरीरमां ज त्रुटि छे त्यां विगइ मात्र थी विकृति होई शके नहि । सारांश ए छे के ज्यां विकृतिनी संभावना होय त्यांनो निषेध उचित गणाय पण सर्वत्र नहि । पाठोक्त व्यक्तिने सर्वथा निषेध केम नहि ? ataraani विचरता रोगमुक्त बलिष्ठदेहवाळा मुनिने विगइ भक्षणमां विकृतिनी संभावना छे, तो सर्वथा निषेध करवो जोईए आम नहि करतां, वारंवार खावी न कल्पे एम शा माटे निषेध कर्यो ? उपर्युक्त मुनिए कदाचित् कारणे कोईवार विगइ वापरी होय तो ते चित्तनी विकृति करो दुर्गतिना साधनभूत प्रायः बनती नथी, परंतु वारंवार खावामां आ स्थिति बने छे, माटे सर्वथा निषेध नही करता वारंवारने माटे निषेध करेल छे । For Private And Personal Use Only
SR No.521529
Book TitleJain Satyaprakash 1938 02 SrNo 31
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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