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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५० શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [443 कन्दादिषट्कं त्यागार्ह, इत्यन्नाद्विभजेन्मुनिः । न शक्यते विभक्त चेत् , त्यज्यतां तर्हि भोजनम् ॥४१॥ संस्कृत टीका-++++कन्दादिषट्कं मुनिः पृथक कुर्यात् ॥ माने दिगम्बर मुनि कन्दादि छे को दूर हटाकर आहार ले सकते हैं। यदि ये सचित्त होते तो दि. मुनि उस सचित्त निक्षिप्तादि दोषयुक्त आहारको हरगीज नहीं ले सकते। मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार गा० ६५ की टीका में भी उपरसा ही विधान है। -जैनदर्शन व. ४ अ.४ पृ. १५३ ॥ सारांश-दिगम्बर मुनि पक्व फल और शाक आदि वनस्पतिको अप्रासुक ही मानते हैं फिर भी वेग्राह्य हैं। इस वनस्पतिके विषय में दिगम्बरी मत अधिक देखना हो तो 'खंडेलवालहितेच्छु' ता. १९-८-१९३६ इस्वीके अंक २१ में ब्यावर निवासी दिगम्बर ब्रह्मचारी महेन्द्रसिंहका “वनस्पति आदि पर जैन सिद्धांत' शीर्षक लेख पढ़ना चाहिये । हमें तो विश्वास है कि आजीवक मतका यह सारा अनुकरण ही है। दिगम्बरी “जैनहितैषी भा. ५ अ ९. पृ. १७” में “धर्मका अनुचित पक्षपात" लेख छपा है उसमें वि. सं. १६३६ में दि० काष्ठासंघी आ० भूषण लिखित दिगम्बरीय मूलसंघका कुछ इतिहास " दिया है जिसका सारांश इस पकार है “एक बार काष्ठासंघी अनंतकीर्ति नामके आचार्य गिरनारको यात्रार्थ गये। वहां उन्होंने पद्मनंदी (कुंदकुंदस्वामी) आदि निर्दयी पापी कापालिकोंको देखा और उन्हे संबोध श्रावकके व्रत दिये । आचार्यने उसका (कुदकुंदस्वामीका) नाम मयूर-श्रृंगी रखा। बादको उसने मंत्रवादसे नंदी-संघ चलाया और अपना पद्मनंदी नाम प्रसिद्ध किया। एक समय उज्जैनमें उसने गुरुसे विवाद किया और पत्थरकी शारदाको जबर्दस्ती (बलात् ) बुलवा दिया। तब उसका बलात्कार गण और सरस्वती गच्छ प्रसिद्ध हुआ। आदि+++++ बादमें उसने मंत्र सिद्धिके निमित्त एक मयूरको मार डाला। तब मयूर मरकर व्यंतर देव हुआ। उसने बहुत उपद्रव मचाया तथा त्रास दिया। अन्तमें उसके कहनेसे मयूरपिच्छ धारणकर पिंड छुडाया उस दिनसे मूलसंघका नाम मयूर-संघ हुआ" -जैनदर्शन, व०४, अं. ७, पृ० ३२०। पंडितजी! इस दिगम्बर भट्टारयकृत कथाको पढकर दिगम्बर मुनि मयूरपीच्छ क्यों रखते हैं उसे सोचे । आपको स्वयं ज्ञात हो जायगा कि-वस्त्ररहित होने परभी मुनिको मयूरपीच्छ रखना यह कितना पवित्रताका नमूना है. ? दि० समाज तो इस आपत्तिके कारण मयूर-पीच्छको पवित्र एवं प्रासुक ही मानता है। For Private And Personal Use Only
SR No.521526
Book TitleJain Satyaprakash 1937 11 SrNo 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
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