________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
पं० इन्द्रचंद्रजीसे
लेखक: - मुनिराज श्री ज्ञानविजयजी
--
अब दिगम्बर मुनिओंके अग्राह्य-ग्रहण के प्रमाण देखिऐ :दिगम्बर मुनि कच्चे - सचित्त पानीको अचित्त बोलकर पीते हैं। जैसे कि
पाषाणस्फोटितं तोयं, घटीयंत्रेण ताडितं । सद्यः संतप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते ॥ देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय गृहमेधिनाम् ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अर्थात् - जो जल पत्थर से टकराया हुआ हो, अरहट्टसे ताडित हो और सूर्यको किरणसे तत्काल उष्ण हुआ बावडीका जल, ये सब देवर्षि ( एक विहारी या मासांपवासादिके धारक महामुनियों) के शौच और गृहस्थों के स्नानके लिये प्रासुक माना गया है ।
— जैनदर्शन, व० ४, अं० ४, पृ० १५८ ॥ दि० मतमें आकाशचारणऋद्धिप्राप्त मुनि देवर्षि माने जाते हैं । -- चारित्रसार, पृ० २२, प्रवचनसार पृ० ३४३, जै० द०, १०४, पृ० ३३१ | मैंने पहिले लेखमें दितके प्रासुक पानी के प्रमाण लिख दिये हैं ।
सारांश यह है कि दि०समाज सचित्त पानीको भी प्रासु यानी ग्राह्य मानता है । दि०मुनिओं के इस शिथिलाचारका परिणाम यह आया है कि आज कई भागमें, उपवास करनेवाले दि०जैन उपवास में सिर्फ पानी ही नहीं, किन्तु बादाम आदि को ठंडाई (लसी) को पीते हैं ।
दि० मुनि सवित्त फलको भी प्रासुक मानते हैं । जैसेकि - अतिथि संविभाग यानी दिगम्बर सम्मत वैयावृत्य के पांच अतिचार माने जाते हैं माने सचित्त निक्षेप वगैरह मुनिओंके लिये अग्राह्य है ।
- तत्त्वार्थ, अ० ७, सू० ३६; राजवार्तिक पृ० २९१, रत्नकरंड श्लो० १२१ राजमलजी की लाटी संहिता श्लो० २२७, २२८ ।
<
यद्यपि जैनमुनि सचित्त निक्षिप्त व सचित्त पिहित आहारको अप्रासुक मान कर लेते नहीं हैं किन्तु दि०मुनि फल बीज वगैरहको प्रासुक माने अचित्त ही मानते हैं और उनके संसर्गवाले आहार को लेना योग्य मानते हैं ।
पं० आशाधरजीने अनगार धर्मामृत ' अ. ५, श्लो. ३९ में १४ मल बताये हैं जिसमें कन्द, ( सुरण आदि), मूल (मूली अदरख इत्यादि), बीज, फल ( आम, बेर), कण (गेहूं आदिके टूकडे ) और कुण्ड, (भीतर से अपक्व चावल) गिनाये हैं । ये सब मल हैं किन्तु अप्रासुक नहीं हैं।
For Private And Personal Use Only