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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ ४ ] ઐતિહાસિક સાર [१.३७] श्रवण कर सभामें किया, सम्राट अकबर सामने आया, धर्मोपदेश सूरिजी की महती प्रशंसा की । सम्राट् प्रतिदिन सूरिजी से धर्मगोष्टी करते परम दयालु हो गए, सूरिजी के उपदेश से आषाढ मासकी अठाही में समस्त (१२) सूत्रोंमें अमारि पालन करने के लिए फरमान जारी कर दिए । सूरिजीके कथनसे संभातके जलचर जीवोंको न मारनेका भी मोहरदार फरमान कर दिया । सम्राटने एक बार काश्मीर जानेकी तैयारी की, वहाँ भी धर्म प्रचार हो इस लिए सूरिजीसे आज्ञा प्राप्त कर महिमराजजीको अपने साथ लिया । काश्मीरके विकट पथरीले मार्ग में शीतपरिसह सहते हुए पैदल बिहारी वाचकजीका साध्वाचार देखकर अकबर दङ्ग रह गया । वाचकजी के उपदेश से श्रीनगर में अमारि पाली गई, धर्मप्रभाव से सम्राट् काश्मीर विजय कर वापिस श्रीनगर आए । सम्राटने बड़े गुरु (श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ) के समक्ष वाचकजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें आचार्यपद देनेकी प्रार्थना की । सम्राटने सूरिजीको युगप्रधान पद दिया और वाचकजी को व्यय आचार्यपद देने के लिए महोत्सव की तैयारीयां होने लगी। यह उत्सव मंत्री श्रीकर्मचन्द्र की ओर से हुआ । कविने मंत्रीश्वर के ये अवदात लिखे हैं—सं. १६३५ के दुष्काल में अनर्गल दान दिया, आबू (सिरोही) की प्रतिमाएं छुडाई, सर्वत्र लाहण कीं । उनके पूर्वज नगराज, बच्छा और कर्मसिंह जैसे महापुरुष हुए, जिस प्रकार कर्मसिंहने तीन लाख रूपये कर जिनहंससृरिजोका पदस्थापन किया उसी भांति कर्मचन्द्रने गुरुभक्त्यर्थ यह महोत्सव किया । रातीजागा, मुंहमांगा दान, शाही वाजित्र बजाना और मंडप रचना की । खान, वजीर, उमराव, शाहजादा गुरु को बधाते थे। भाट, भोजक, गंधर्व आदि याचकोंको सर्वथा प्रकार से पुण्यवान श्रावकने दान दे कर संतुष्ट किए। ९ गांव, ९ हाथी, ५०० घोडे आदि सवा करोड का दान दे कर मंत्रीश्वरने अपने पुत्र भागचंद लक्ष्मीचंद सहित जगत में अपना अमर नाम किया । टांक वंश के राजपाल श्रीमालने २५१ घोडे दान किए। सं. १६४९ फाल्गुन शुक्ल २ को युगप्रधानजीने महिमराजजी को सृरिमंत्र दिया, जिनसिंहरि नाम रखा गया । एक वार ब्राह्मणोंने सम्राट के समक्ष कहा " जैन लोग गंगा और सूर्य को नहीं मानते " ऐसा सुन सब के निरुत्तर रहने से सम्रादने जिनसिंहसूरिजी को बुलाया। प्रश्न, प्रत्युत्तर होते अकबर को संतोषजनक उत्तर मिला । आचार्यश्री ने कहा " जैनशासन में गंगाजल पवित्र कहा है, स्नात्र, पूजा और अभिषेकादि में तीर्थजल को ही प्रधानता है और सूर्य को भी जैसा मानते हैं प्रसिद्ध है, सूर्यास्त के बाद अन्न, जल तक ग्रहण नहीं (અનુસધાન માટે જુએ પાનું ૧૩૮) For Private And Personal Use Only
SR No.521526
Book TitleJain Satyaprakash 1937 11 SrNo 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
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