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५डिया से
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३---वे समाज गरम पानी को या शस्त्रहत पानी को ही अचित्त--प्रामुक मानता है।
आजीवक मत के प्रणेता ने पानी के (अप्जीव अपकाय अप्कायिक अप इत्यादि ) अनेक भेद बताकर अप्रामुक को प्रामुक मनाने की कोशिश की है ("जैन सत्य प्रकाश, '' ब० २, अं ८, पृ० ४३६)
दिगम्बर शास्त्र भी कुए के लाने पानी को चित्त --प्रासुक मानते हैं। देखिये प्रमाणविलोडितं यत्र तत्र विक्षिप्तं वखादिगालितं जलं ।
--(तत्वार्थगूत्र की दिगम्बरीय श्रुतसागरी टोका ) क्षपर्णोपरि पतित्वा यजलं मुन्युपरि पतति तत् पासुकं ।
षट् प्राभृत, पृ० २६१ पाषाणस्फोटितं तोयं घटीयन्त्रेण ताडितं । सद्यः संतप्तवापीनां. प्रासुकं जलमुच्यते॥
......शिवकोटि । जै० पृ० १५५ अतसागरजी इस श्लोक में पानी के चार भेदों में सूचित प्रथम भेद को यानी किलोहित ने हा जल को अचित्त मानते हैं । (जैनदर्शन व० ४, पृ० १११-११२)
मुहर्त गालितं तोयं, प्रामुकं पहरद्वयं । जुष्णोदकमहोरात्रमतः सम्भूमिं भवेत् ।। -- (स्नमाला )
ने ए जल में मुहूर्त तक, प्रामुक में दो प्रहर तक और उष्ण जल में अहोगा तक जीवो पत्ति होती नहीं है, बाद में सम्मूलिंग रूप से उत्पत्ति होती है । इत्यादि।
-- (जैनदर्शन, व० ४, अं० ३, पृ० ११६) अत्यक्तात्मीयसद्वर्ण-संम्पर्शादिकमंजसा । अपामुकमथातप्त, नीरं त्याज्यं व्रतान्वितेः ॥ ६९ ॥
......(प्रशोत्तर श्रावकाचार, संधी २२, श्लोक ६९) ब्रह्मचारी जी इस गाण को भी बने हुए जल को अचित्त मानने में पेश करते हैं । इत्यादि ।
--(जै० द०, व० ४, पृ० २२४) व्यावर के ब्रह्मचारी महेन्द्रसिंहजी न्यायतार्थ आदि दिगम्बर विद्वानों ने जैन बोधक, खंडेलवाल हितेच्छु आदि में “ बनस्पति आदि पर जैन सिद्धांत" वगैरह लेखां से साबित किया है कि---कुए का छना हुआ जल अचित्त है, दरख्त से अलग हुई
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