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दो ऐतिहासिक रासों का सार
__ लेखक-श्रीमान् अगरचंदजी नाहटा, बीकानेर जनों का ऐतिहासिक साहित्य बहुत विशाल है। सैकडों ही नहीं हजारों की संख्या में ऐतिहासिक रास, छंद, गीत, गहुंली, तार्थमालाएँ, चैत्य परिपाटोऐं एवं स्तवन स्तोत्र स्तुति आदि उपलब्ध हैं। उनमें प्रकाशित काव्यों की संख्या तो अति अल्प है। खोज शोध के अभाव से हजारां काव्य तो अज्ञात अवस्था में भंडारों में ही पडे हैं। हमने ऐसे करीब २०० ऐतिहासिक काव्यों का एक संग्रह-ग्रन्थ हाल ही में सम्पादित किया है, जो निकट भविष्य में शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है। प्रस्तुत ग्रन्थ में हमने १२ वीं शताब्दी से लगाकर लगभग २० वीं शताब्दी तक के (८०० वर्षों के भिन्न भिन्न सभी शताब्दीयों के) काव्यों को स्थान दिया है। फिर भी उनके अतिरिक्त सैकडों ऐसे स्तवन, गीत, गहुँली आदि हमारे संग्रह में अप्रकाशित पडे हैं। और ज्यों ज्यों खोजशोध का कार्य चलता रहता है, निरन्तर अनेकां काव्य निरीक्षण व संग्रह में आते रहते हैं। इससे ऐतिहासिक जैन काव्यों की प्रचुरता का काफी अनुभव हो सकता है।
हमारे समान अन्य साहित्य सेवी विद्वानों के पास भी ऐसे अनेकों काव्य उपलब्ध होगें व भंडारों में भी बहु संख्यक काव्य सुरक्षित हैं। उन सब को सुसम्पादित कर प्रकाशित करना ५-१० विद्वानों का काम नहीं और न इतनी द्रव्य प्रचरता ही है। अतः मेरे विचार में जिन जिन के पास जो जो ऐतिहासिक रासादि साधन हां उनका संक्षिप्त ऐतिहासिक सार प्रसिद्ध जैन साहित्यिक पत्रों में प्रकाशित किया जाता रहे तो थोडे समय में जैन इतिहास की सुन्दर रूपरेखा तैयार की जा सकती है। मूल काव्य अलंकारिक और वर्णनात्मक होने से बड़े होते हैं, उनके प्रकाशन में काफी समय, साधन और स्थान की आवश्यकता रहती है । पर उनके ऐतिहासिक सार में कार्य बहुत शीघ्र और सुन्दर हो सकता है । इसी दृष्टि से प्रस्तुत लेख में दो तपागच्छीय रासों का यह सार प्रकाशित किया जाता है । आशा है साहित्यप्रेमी विद्वानों को यह उपयोगी प्रतीत होगा और मेरी नम्र विज्ञप्ति व योजनानुसार वे भी अपने को प्राप्त ऐतिहासिक काव्यों का सार लिखकर प्रकाशित करने की कृपा करेंगे ।
__ ऐतिहासिक काव्यों के प्रकाशन का महत्त्व पूर्ण कार्य (मोहनलाल दलीचंद देसाई सम्पादित) जैनयुग मासिक पत्र द्वारा बहुत सुन्दर हुआ था। आज तक अविच्छिन्न
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