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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२४ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ વૈશાખ भी विचार औन्नत्य को धारण करनेवाला अवश्य ही धर्मवाला होता है। यदि ऐसा नहीं मानने में आवे तो एक भी दफे आदमी निर्धन हो गया तो उस जन्म में या अन्य जन्म में उसको दानादि धर्म होने का सम्भव ही नहीं है। ऐसा मानने से नतीजा यह आ गया कि निर्धन को दानादि नहीं होने से (सर्वथा ) स्वतः धर्म नहीं होगा, और धनवान के धन का दुरुपयोग और अनुपयोग ज्यादा होने से धर्म का सम्भव बहुत कम होगा । इससे आहिस्ते आहिस्ते धर्म का अभाव ही हो जायगा । इन बातों का विचार करने से सज्जनगण सहज ही समझ सकेंगे कि धर्म की असली जड विचार का औन्नत्य ही है। इस विचार औन्नत्य को चार भाग में अपन विभक्त कर सकेंगे: १ जगत् भरके सब जन्तु चाहें तो स्थावर हो चाहे तो चल हों, चाहे तो समझदार हों, चाहे तो बिन समझदार हों, स्वदेशी हां, या विदेशी हां, स्वजन हे या परजन हों, मित्र हो या शत्रु हों, हिंसक हो या दयालु हो, चाहे जैसे ; लेकिन किसी जन्तु पर वैर विरोध की भावना न होवे याने 'अपराध की माफो लेनी और देनी' इस सिद्धांत को आगे रखके 'मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु' याने सभी जीवों को फायदा पहुंचानेवाला होना यह मेरा असली कर्तव्य है, ऐसा विचार कर इस मैत्रीभाव के सिद्धांत से ही जैन शास्त्र धर्म को फरमाता है। उसी से जैनधर्म के सत्ताकाल में किसी जैन राजा या समाज ने किसी अन्य धर्म के मन्दिर, धर्मस्थान या गुरुस्थान को हडप करने के लिए न तो उद्यम किया है और न हडप किया है । यद्यपि इस मैत्री भावना को संपार की मौज में मचे हुवे आदमी निर्बलता और कायरता के नाम से पुकारते हों, लेकिन सजनगण तो स्वयं ही समझ सकते हैं कि जगत में ऐसा एक भी सद्गुण नहीं है कि जिसको दुर्जनों ने दूषित न किया हो; इस बात को सोचके जनसमुदाय को खोटो बहकावट से कोई भी सञ्जनगण माफी देने के साथ के इस मैत्री गुण को कभी दूर न करेंगे। यह मैत्री भावनावाला ही धर्म विश्वधर्म हो सकता है। जिस धर्म में वैर और विरोधरूप अग्नि जाज्वल्यमान करने का आदेश हो वह धर्म कभी विश्वधर्म होनेके लिये लायक नही बन सक्ता । २ जिस तरह सर्व प्राणिओं के हित को चाहना करने की धर्मनिष्ठ प्राणि के लिये जरूरत है, उसी तरह (खुदसे ) ज्यादा गुणवान आदमी की ओर बड़ा सत्कार सन्मान करने की इच्छा प्रदीप्त होना ही चाहिये । जो आदमी गुणवान को पहिचानता नहीं है, और गुगवान का आदरसत्कार सन्मान करने के लिये हरदम अभिरूचिवाला नहीं रहेता, वह आदमी कभी धर्मनिष्ट नहीं हो सकता। अनादि काल से अज्ञान से भरे हुए आत्मा को नये नये गुणों की For Private And Personal Use Only
SR No.521521
Book TitleJain Satyaprakash 1937 05 SrNo 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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