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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir વિશાખ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ धर्म का स्वरूप-उपर दिखाया हुआ धर्म स्वर्ग और मोक्ष का कारण है यह बात सभी आस्तिक लोक मंजूर करते हैं । लेकिन धर्म किसको कहना इसमें ही बडा विवाद है । कितनेक भद्रिक लोक तो धर्म का अलग अलग रास्ता सुनके ही धर्म के उन भेदों के नाम से ही धर्म से अलग हो जाते हैं; लेकिन उन लोगों को सोचना चाहिए कि रजत, सुवर्ण, हीरा, मणि, मोती, पन्ना, वगैरह जगतभर की जो जो किमती चीजें गिनी जाती हैं वे सभी परीक्षा की दरकार रखती हैं, क्योंकि विना परीक्षा किए कोई भी इन्सान इन चीजों को नहीं ले सकता । तब धर्म जैसी चीज जो इस जिन्दगी को सुखमय बनाने के साथ आयन्दा जिन्दगी की मनोहरता करने के साथ शाश्वत ज्ञान और आनन्दमय ऐसे अव्याबाध पद को देनेवाली होने से अनमोल है वह परिश्रम और परीक्षा किए बिना कैसे सच्ची तरह से पहिचान सकते और पा सकते हैं। सुज्ञ महाशय को इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि जगत में जिस चीज से जो चीज मिल जाती है उस चीज से वह चीज कम किमतवाली ही होती है । इसी तरह खान, पान, शरीर, इन्द्रियां, वाचा, विचार, कुटुम्ब, धन, धान्य, वगैरह सभी चीजें धर्म याने पुण्य से ही मिलती हैं । इससे स्पष्ट ही कहना चाहिए कि धर्म यह अणमोल चीज है। इस वास्ते उसकी परीक्षा अवश्य होनी ही चाहिए । ख्याल करने की जरूरत है कि तरकारी लेने में गडवड हो जाय तो आधे आने की नुकसानी होवे, कपडा खरीदने में अकल का उपयोग नहीं करे तो दो चार आने का हरजा हो, चांदी के गहने में दो चार रुपयों का हरजा होवे, सोने के गहने में पचीस पचास का हरजा होवे, हीरा मोती के खरीदने में हजार दो हजार का घाटा होवे । लेकिन परीक्षा किये बिना धर्म के लेने में तो इस जिन्दगी और आयन्दा जिन्दगी की बरबादी होने के साथ संसारचक्र में जीव का रुलना ही हो जाय । इससे धर्म की खास परीक्षा करने की जरूरत है। परीक्षा करके ही लिया हुआ धर्म बहुत करके सच्चा मिल सकता है। धर्म की परीक्षाः-जगत में जिस पदार्थ को अपन देखते हैं उसकी परीक्षा अपन फौरन कर सकते हैं, क्योंकि जगत के बाह्य पदार्थों की परीक्षा उनके स्पर्श, रस, वर्ण, गंध, संस्थान, आकृति वगैरह से हो सकती है, लेकिन यह धर्म ऐसो चीज है कि जिसकी परीक्षा स्पर्श वगैरह से कभी नहीं हो सकती । इससे ही धर्म के विषय में ज्यादा मतमतांतर भी हैं और परीक्षा करना मुश्किल भी है । स्पर्शादिक से जिस वस्तु को परीक्षा हो जाती है उसमें विवाद का स्थान ही नहीं रहता। जैसे मृदु और कर्कश स्पर्श, मीठा और तीखा रस, सुगंध और दुर्गव, सुरूप और कुरूप वगैरह में किसी तरह से किसी का For Private And Personal Use Only
SR No.521521
Book TitleJain Satyaprakash 1937 05 SrNo 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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