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શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ जमालि आदि अपने को अरिहंत के साधु बताते थे। उनके लिए तो 'अन्नउत्थिए' पद हो काफी था। जयाचार्य को मानने पर भी उपर की शंकायें बनी ही रहती हैं।
रामपुरीयाजी उववाद सूत्र से अम्बड के अभिग्रह की बात लिखकर शंका करते हैं कि --- 'अरिहंत और अरिहंत के चैत्य को छोडकर मैं किसी को वंदन नमस्कार नहीं करुंगा ऐसा अम्बडने अभिग्रह लिया और यदि चैत्य का अर्थ प्रतिमा ही होता हैतो क्या जैन साधुओं के वंदन का भी अम्बडने त्याग किया था ? अरिहंत पद के ग्रहण से साधुओं का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि नमस्कार मंत्र में दोनों पद भिन्न हैं ।'
महानुभाव, चैत्य शब्द का अर्थ साधु करते हो तो सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय पद के लिये आपने क्या सोचा है ? नमस्कार मंत्र में क्या पांचो पद भिन्न नहीं है ? जब पाचों पद भिन्न हैं, तो क्या अम्बडने तीन पदों का वंदन नहीं करने का नियम लिया था ? यदि अरिहंत और साधु पद के ग्रहण मात्र से पांचों पदों का ग्रहण हो जाता है तो किस न्याय से: जिस न्याय से दो में पांचों को ग्रहण करेंगे उसी न्याय से एक में पांचों का ग्रहण होगा। ___आगे चलकर उनने लिखा है - 'स्व. श्री अमोलख ऋषिजीने भी चैत्य शब्द का अर्थ साधु ही किया है।
महाशय ! अमोलख ऋषिजी मंदिरमूर्ति में नहि मानने वाले स्थानकवासी सम्प्रदाय के नेता थे। वे चैत्य शब्द का अर्थ मंदिर मूर्ति कैसे करते? इस विषय में जो हालत जयाचार्य की थी वही इनकी हे। रामपुरियाजी के लिखे अनुसार अमोलख ऋषिजीने देव शब्द की व्याख्या यदि 'धर्मदेव शाक्यादि साधु' की है तब तो एक और गोटाला पैदा हो जायगा ! देव के लिये उठी हुई शंकाओ का तो जैसे तैसे समाधान कर लिया पर अब वैसी ही शंकायें धर्म के लिये भी होगी, कि धर्म के साथ आलाप संलाप और अन्नादि का आदानप्रदान कैसे होगा। क्या धर्म कोई मूर्त है जो ये बाते हांगी ?
रामपुरियाजी फिर लिखते हैं--- 'जयाचार्य की व्याख्या से अमोलरव झपिजी की व्याख्या भिन्न है तो भी इतना स्पष्ट है कि देव शब्द किन्हीं वर्तमान व्यक्ति को संकेत कर के लिखा है।
महाशयजी ! यदि देव शब्द वर्तमान व्यक्ति को लेकर ही सूत्रकार ने लिखा होता तो उसका स्पष्ट नाम ही लिखते, कि अमुक देवभूतव्यक्ति के संबन्ध में आनन्द ने अभिग्रह लिया था। सूत्रों में जहां कहीं वर्तमान व्यक्ति के लिये कहना होता है, उसका
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