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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ ફાગણ ___आ उपर्युक्त गाथामा निषेध कोटिमां वेयावच्चने जगावेल नथी अने आहार लेवामां ज्ञान, ध्यान अने संयमने कारण तरीके वर्णव्यां छे । आ त्रण, ज्ञानी, ध्यानी अने संयमीने आश्रीने रहेनारां तथा चयापचय पामनोरां छे । ज्ञानी, संयमी अने ध्यानो वेयावच्चथी विशेष स्वस्थतावाळा थइने ज्ञान, संयम अने ध्यानने विशेष विकसित करे छे, माटे ज्ञानी, संयमी अने ध्यानीनी वेयावच्च तद्गत ज्ञान, संयम अने ध्याननी पोषक बने छ । आवा आवा प्रकारनी वेयावच्च एकवार आहार करवाथी न बनो शकती होय तो बे वार आहार करोने पण करवामां लाभ छे परन्तु दोष, हास्य के आश्चर्य, लेश मात्र स्थान नथी। छतां पण आने दोष, हास्य अने आचर्यनी कोटिमा लेखके जे शब्दोथ. मुकेल छे ते वचनो ज उपर्युक्त कोटिमां मुकाय तो कांई अनुचित जेवू नथी। धर्मनी उंच कोटिनी आराधना करवा माटे मुनिमार्ग छे, धर्मनी आराधना शरीरना अपेक्षा राखे छे, शरीर आहारनी अपेक्षा राखे छे अने दरेकनां शरीर सरखां पण होई शकतां नथी माटे तेनी व्यवस्थानी जरूरत छ । आ व्यवस्था पूर्वदर्शित कल्पसूत्रना सूत्रोए धगी ज सुन्दर रीते प्रकाशित करी आपी छे, कल्पसूत्रनो निम्नदर्शित पाठ एक सुन्दर राजमार्ग छे, छतां लेखके तेनो जुदो ज अर्थ को छे " खुड्डएण वा खुड्डिआए वा अवंजणजाएण........" [क्षुल्लकाद्वा क्षुल्लिकाया वा अव्यञ्जनजातात्........] आ पाठनो लेखके आ अर्थ को छे-जबतक दाढी मूछों के बाल न आये होय अर्थात् बालक साधु, साध्वी को दो बार भी आहार करना योग्य है, उससे दोष नहीं हैं । .. उपर्युक्त अर्थने आगळ करीने लेखके लव्यु छे के " इस कथन में यह गडबड गुटाला है कि साधु साध्वी कब तक बालक समझे जाकर दो वार भोजन करते रहें । स्त्रीयों को तो दाढी मूछ निकलती ही नहीं । ........अब मालुम नहीं कि आर्यिका [साध्वी ] कब तक दो वार भोजन करती रहे ।" ___आना जवाबमां जणाववानुं जे उपर्युक्त पाठमां 'अवंजणजाएण' मां रहेल 'वंजण' शब्दनो अर्थ करवामां लेखके गम्भीर भूल करीने अर्थनो अनर्थ करवानो व्यर्थ प्रयास को छे । जो लेखके कोशकारना वचन पर ध्यान राख्यु होत अथवा व्युत्पात्त पर ध्यान राख्युं होत अथवा पूर्वापरतुं अनुसंधान राख्यु होत अथवा तो टीकाकार महाराजना वचन पर ख्याल राख्यो होत तो पण आ प्रसंग आवत नहीं, अस्तु । हवे आपणे ज आना वास्तविक अर्थने प्रकाशमा लावीए : क्षुल्लक अने क्षुल्लिका सिवायमां एकवार आहारनो विधि छे अर्थात् - क्षुल्लक अने क्षुल्लिका बे वार पण आहार लई शके छे आवा अर्थने उपरनो पाठ सूचवे छे । क्षुल्लक एटले नाना साधु For Private And Personal Use Only
SR No.521519
Book TitleJain Satyaprakash 1937 03 SrNo 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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