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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દિગંબર શાસ્ત્ર કેસે બને ? इसी प्रकार सं० ६८३ वीरनिर्वाण में आगे बढकर उन्होंने नया साहित्य ११ अंगों का, १४ पूर्वोका, ६३ शलाका बनाया और अपने मत को पुष्ट करनेवाली पुरूषचरित्रका और समूल जिनागम साहित्यका पहेलु को पकड कर और और पहेलु को विनाश हो गया। भगवान महावी देवने कहा काट दिया जिससे श्वेत बरां की प्राचीनता हुआ एक हरफ भी न बा. ऐसी दिगम्बर सिद्ध न हो। देखिए -जिनागम साहित्य मान्यता है। और बौद्ध साहित्यमें गोशालाका परिचय ___ यहां एक सची बात जाहिर करनी मिलता है, जिसके साथ दिगम्बंग की नशता होगी कि उपर में दिगम्बर--सम्मन जिनाग का काफी सम्बन्ध है। और उसका मोंकी जो तालिका निवी है, वैसी ही परि- अस्तित्व बतलानेमें भी श्वेतांबरों को लाभ स्थितिमें आज भी उपर बताए हए विषयों- है। इसीसे गोशालाका नाम तक दिगम्बर से परिपूर्ण आगम सूर्गत हैं। जिसका साहित्यमें से गुम कर दिया गया है। चार विवरण हमने :(करण! १ में लिय दिया है। निर्बा से १७ वर्ष में गोशाला का त्यु यहां पर पाय प्रश्न करेंगे कि उन आगों ममय है। गोशालाके निर्वाण (मृत्यु) से के मौजूद होत हुए भी दिगम्बर सादाय ४७० वर्षांके बाद विक्रमका जन्म हुआ, उनका उछेद क्यों मानता है। उत्तर स्पष्ट और वीर निर्वागसे ४७० वीके बाद विक्रम है. कि-विमान जै। मन प्रान हैं। का राज्य हुआ। इसी प्रकारके १७ वर्षका उनमें भगवान् सुधारिचाजीने कहे हुए अंतर दिगम्बर ग्रंथोमें उल्लिखित है। मगर बदनों का संग्रह है। मगर उनमें साधुओं सभी स्थानमें “गोशालानिर्वाग' एवं को वस्त्र पहेनना. पात्र रम्बना, केलिभुक्ति, “महावीरनिर्वाण" एक कर दिया है। इसी स्त्रीचास्त्रि, स्त्रीमुक्ति के पाट स्थानस्थान में गड्बडमें आज भी कइ दिगम्बर पंडित महाउल्लिखित हैं । दिगम्बर समाज उनको प्रमाण वीरनिर्वाण संवतको १७-१८ वर्ष पीछे माने तो अपनी कल्पना कल्पना ही बन हटानेका आग्रह करते हैं। जाय । इसी लिए उन्हे ने बड़े चारसे आगम दिगम्बर साहित्यमें कुन्दकुन्द स्वामीका वेदीओं की परंपग खडी कर जिनागमे का नाम सर्वश्रेष्ठ है। मगर उनके गुरुजी शाही स्वातमा बता दिया, एवं बिना जिनागम भूतिजी नामका पता भी नहीं है। यदि ही जैनधर्म फेलाना चाहा। उनके गुरुजीका नाम लिखे तो श्वेताबर है। इस विषयमें अधिक देखनेकी इच्छा हो तो हमारा “दिगम्बर बाङ्मय" देखो। दिगम्बराचार्य देवसेजसूरि तो साफ साफ बताते हैं कि--कुन्दकुन्द आचार्यने देवी ज्ञानसे ही सारा धर्ममार्ग फरमाथा है। याने उन आचार्यने कल्पनासे ही धर्मपद्धति-ग्रन्थरचना की है। For Private And Personal Use Only
SR No.521507
Book TitleJain Satyaprakash 1936 01 SrNo 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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