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દિગમ્બર શાસ્ત્ર કેસે બને ?
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चारित्र है-न मोक्ष है । इस प्रकार श्र- को “ संघ" शब्द से पहिले “मूल" मणी संघ-साध्वी वर्ग को उड़ा दिया शब्दकी उपाधि लगा दी। मगर क्या
और श्रीसंघके साधु श्रावक व श्राविका नकली चीजकी कृत्रिमता छुप सकती एवं तीनों अंगोंको जोड कर "मूल है ? हरगीज नहीं । अस्तु । २६ संघ" की स्थापना की । २५
वस्त्र विना पात्रको कैसे समाल एक वात ठीक समजमें आती है ना? अतः शिवभूतिने पात्र रखना कि-जो नयी समाज बनती है वो ही उड़ा दिया, इतना ही नहीं केवलिअपने को प्राचीन बताने के लिए बडी भगवान् का आहार-पानी उडा दिया, गहरी चेष्टा करती है. अपना नाम भी एवं तीर्थंकरोंका आहार-पानीके त्याग ऐसा हो झमकीला बना लेती है। रूप अतिशय भी लिख मारा। देखिए-दयानन्द सरस्वतीके अनु- भगवान् महावीर स्वामीने दर्शनयायीओंने अपना नाम रक्खा " आर्य ज्ञान-चारित्ररूप भावलिंगमें मोक्ष फरसमाज" माने और सब अनार्य हैं, माया , शिवभूतिने नंगेपनरूप द्रव्यवैसे ही देवसमाज ब्रह्मसमाज व सना- लिंगमें मोक्ष बताया । भगवानने स्यातनी इत्यादि नाम रक्खे गये हैं। दि- द्वाद धर्म उपदेशा, इसिने एकान्तगम्बरोंने भी अपनी प्राचीनता जचाने आग्रह मत चलाया। २७
२५ दिगम्बर सम्प्रदायों के मूलसंघ काष्ठासंघ वगेरह नाम रक्खे गए हैं । उन में लगाये हुए " संघ" शब्द उनकी असली संघसे बहिष्कृतताके ओर हठात् संघ बनने की मनशाके सूचक हैं ।
२६ पं० नथुराम प्रेमीजीका मत है कि-" मूलसंघ " नांव सातवी आठवी शताब्दी पहिलेके कोइ लेखमें प्रतीत नहीं होता, माने वो नाम अर्वाचिन है ।
-ता० २१-१०-३० को लिखी हरिवंशपुराणको प्रस्तावना ।
२७ कतिपय दिगम्बराचार्योंने तो स्याद्वादको रक्षानिमित्त वस्त्र धारण के भी विधान किये हैं
संघो कोवि न तारइ कट्ठो मूलो तहेव निप्पिच्छो । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पाओ झायव्वो ॥ श्रावकाचारे अमृतचन्द्रः ।। या मूर्छानामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥ १॥ श्रा० अमृतचन्द्रः ॥
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