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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૧૬ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ रह सकता हैं । अलावा ऐसा करने से खुनसमें ही उपवास कर ले. वैसा ही जिन आज्ञाका द्रोह होता है, जिन- शिवभूतिने किया। शासन की निन्दा होती है । अतः श्री आचार्यने सब कुछ कहा, मगर जम्बूस्वामीजी के बाद साधु को नंगा उसने माना ही नहीं । फलस्वरूप शि: रहना निषिद्ध है | शरीर आहार पुस्तक वभूतिने वस्त्र छोड दिया ओर वो नंगा वस्त्र पीछी पात्र कमण्डलु वगेरह चारि- बन गया ।२४ त्रके उपकरण ( साधन ) हैं, उन में (आवश्यक नियुक्ति-वृत्ति, उत्तमी हो उठे तो वे सब अधिकरण राध्ययन सूत्र-वृत्ति, विशेषावश्यक ही हैं । एवं सर्वज्ञ तीर्थकर की आज्ञा भाष्य टीका) अपेक्षा प्रधान है। अब श्रमणी संघको नंगा रहनेका जैसे एक गुस्सेबाज आदमी उस- प्रश्न उठा । शिवभूतिने तुर्त ( फोरन ) की मनमानी मगर नुकसान करनेवाली इन्साफ दे दिया कि-जनाना कभी भी चीज खाने की मना करने के कारण नंगी रह सकती नहीं है,अत एव उनको न २४ विक्रम संवत् १०९में नंगे साधु निकल पडे। मगर ऐसा साहसिकतासे निकाला नवीन मत कहां तक चले ? शुरुमें ही " श्रमणीसंघ " खारिज हो गया। अब रहे तीन संघ । बादमें दिगम्बर आचार्य स्वामी वसन्तकीर्तिने मांडवगढमें विक्रम की तेरवी शताब्दीमें आम तोरसे वस्त्र धारण किया (षट् प्राभृत टीका)। माने, श्वेताम्बर पना स्वीकारा । अतः उन समय से ही दिगम्बर साधुपनका खात्मा हो गया। तत्पश्चात् तो दिगम्बर साधु संघकी " भवति विनिपातः शतमुखः ” दशा हो गई ( दिगम्बर जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित भट्टारक मीमांसा ) )। शेष रहे दो संघ-१ श्रावकसंघ और २ श्राविकासंघ, एवं बिना साधु ही गृहस्थोसे दिगम्बर शासन चला। एकान्तवादी मतकी ऐसी ही शोचनिय दशा होती है। आज कल कई साधुओंने पुनः दिगम्बर मुनिसंघ बनाया है । मगर उनको शहरप्रवेशकी मना होती है, राजाओं की आज्ञा लेनी पडती है, पोलिसकी टयूरमें केदी-सा चलना पडता है । लोगो दिल्लगी करते हैं, जिनशासनकी निन्दा होती है । अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से भी सिद्ध है कि आचार्य कृष्णाचार्यने शिवभूति को जो उत्तर दिया था बो सचमूच ठीक है। For Private And Personal Use Only
SR No.521504
Book TitleJain Satyaprakash 1935 10 SrNo 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1935
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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