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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
रह सकता हैं । अलावा ऐसा करने से खुनसमें ही उपवास कर ले. वैसा ही जिन आज्ञाका द्रोह होता है, जिन- शिवभूतिने किया। शासन की निन्दा होती है । अतः श्री आचार्यने सब कुछ कहा, मगर जम्बूस्वामीजी के बाद साधु को नंगा उसने माना ही नहीं । फलस्वरूप शि: रहना निषिद्ध है | शरीर आहार पुस्तक वभूतिने वस्त्र छोड दिया ओर वो नंगा वस्त्र पीछी पात्र कमण्डलु वगेरह चारि- बन गया ।२४ त्रके उपकरण ( साधन ) हैं, उन में (आवश्यक नियुक्ति-वृत्ति, उत्तमी हो उठे तो वे सब अधिकरण राध्ययन सूत्र-वृत्ति, विशेषावश्यक ही हैं । एवं सर्वज्ञ तीर्थकर की आज्ञा भाष्य टीका) अपेक्षा प्रधान है।
अब श्रमणी संघको नंगा रहनेका जैसे एक गुस्सेबाज आदमी उस- प्रश्न उठा । शिवभूतिने तुर्त ( फोरन ) की मनमानी मगर नुकसान करनेवाली इन्साफ दे दिया कि-जनाना कभी भी चीज खाने की मना करने के कारण नंगी रह सकती नहीं है,अत एव उनको न
२४ विक्रम संवत् १०९में नंगे साधु निकल पडे। मगर ऐसा साहसिकतासे निकाला नवीन मत कहां तक चले ? शुरुमें ही " श्रमणीसंघ " खारिज हो गया। अब रहे तीन संघ । बादमें दिगम्बर आचार्य स्वामी वसन्तकीर्तिने मांडवगढमें विक्रम की तेरवी शताब्दीमें आम तोरसे वस्त्र धारण किया (षट् प्राभृत टीका)। माने, श्वेताम्बर पना स्वीकारा । अतः उन समय से ही दिगम्बर साधुपनका खात्मा हो गया। तत्पश्चात् तो दिगम्बर साधु संघकी " भवति विनिपातः शतमुखः ” दशा हो गई ( दिगम्बर जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित भट्टारक मीमांसा ) )। शेष रहे दो संघ-१ श्रावकसंघ और २ श्राविकासंघ, एवं बिना साधु ही गृहस्थोसे दिगम्बर शासन चला। एकान्तवादी मतकी ऐसी ही शोचनिय दशा होती है।
आज कल कई साधुओंने पुनः दिगम्बर मुनिसंघ बनाया है । मगर उनको शहरप्रवेशकी मना होती है, राजाओं की आज्ञा लेनी पडती है, पोलिसकी टयूरमें केदी-सा चलना पडता है । लोगो दिल्लगी करते हैं, जिनशासनकी निन्दा होती है ।
अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से भी सिद्ध है कि आचार्य कृष्णाचार्यने शिवभूति को जो उत्तर दिया था बो सचमूच ठीक है।
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