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समीक्षाभ्रमाविष्करण
लेखक - उपाध्याय श्रीमद् लावयविजयजी महाराज.
क्या साधु छाता भी रक्खे ?
बाधकतानुं बीज शुं ? तथा बाधबीज शुं छे ! बाधवोजमां पण तदप्राप्तियोग्ये चारितार्थ्यम् रूपबाधवीज छे अथवा तदप्राप्तियोग्येऽचारित्यायै सति कृते चारितार्थ्यम् रूपबाधवीज छे. अथवा तदप्राप्तियोग्येऽचारिताध्ये सति कृतेऽचा रितार्थ्यम् रूपवाधवीज के अथवा तदप्राप्तियोग्येऽचारिताथ्ये सति अपवादशास्त्रप्रवृत्युत्तरमुत्सर्गशास्त्रप्रवृत्तौ अप वादशास्त्रप्रणयनवैयर्थ्य सम्भवाना बाधबीज छे ! बाघवोजमां कया वाघबीजथो केटलो संकोच थाय छे अने फलितार्थ शुं निकले छे विगेरे विचारणा करarat जरुर हती.
रूप
पण
देवानां प्रिय ? लेखक थोडी वार तद्दन सरलता लावाने तमारा हृदयने पुछो तो खरा के चेतन ! आमांनो तने केटलो बोध हे जिनेश्वरदेवनी आज्ञा लोपवाथी जीव पापनो भागी बने छे अने जिनेश्वरदेवनी आज्ञा जणाववार ते शास्त्र छे अने शास्त्रमां उपरथी जातो शो अर्थ छे ? अने बीजानी साथे एक वाक्यता करवाथी शोबोध थाय छे अने ते बौधमां तमारा प्रश्न वाळी वस्तुनो बाध
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आवे छे के नहि विगेरे विचार जो ले: खके कर्यो होत तो तेने आलखाणकार्यम उतरवानी जरूरत रहेत नहि. परन्तु दिन " वाचकवर्गनं समो ध्यान चीए बीए के जैन शास्त्रकारनी गम्भीर सूरसता होवाने लड़ने से वस्तु गीतार्थी ने आधीन रहे के पटल साटे नीचे प्रमाणे कडेवामां आवे है गुरु अहीण सव्वे सुत्तस्था [ गुरुमत्या धनः सः | गुरु महाराजनी मतिने आधिन सबै अने अर्थो के आ वाक्यने केटलाक जदा रुपमा ला जाय के अने कहे छे के मुनिओष पोताना स्वार्थने माटे अने पोतानी सत्ता जमायया माटे आवाक्य स्थान आपेल ले अने आ वाक्यने अनसरवाथी जीवो सिद्धान्तना ज्ञानथी वंचित रही जाय के. आह बोलनार के माननार तीनो हत्रे समर्जी' शक के गुरुगमन भावेशी दश था के गर्ने शास्त्रकारना अभिप्राय केटलं खुन यह जाय के जीव अन्धकारनं तार्थ समज्या विना उलटा अर्थ करी विराधकभावे दुर्गतिना भागी न बने तेनी खातर उपरोक्त वाक्य हे
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