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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाग्लानादि अनिवार्य कारण सिवाय पण समजवू जोइए. परन्तु आपवादिक छत्रनुं धारण कर ते स्व अने परना. वस्तुने मूख्य मार्गनी कक्षागं लइ जनार अनर्थने माटे छे. आथी ते भाचरवा आ लेखकना जेवामओए तो कहेवू जोईए लायक नथी. सारांश ए छे के मुनिओ के-भाइओ ! वैद्य के डॉक्टरने जो मानता बीलकुल छत्र धारण करी शके नहि, हो तो पेशाब अने झाडो पथारीमा कअने धारण करे तो अनर्थ पेदा थाय, रवो जोइए, में मारा कानोकान पेशाब परंतु तथा प्रकारना कुङ्कणदेश जेवादेशोमां अने झाडो पथारीमा करवानुं सांभळेल मुनि गएला होय,अने त्यां निरंतर अनर्गल छे, अने लेखक पोते पण जो वद्य के घरसाद पडतो होय अने मन्दग्लानादि डोक्टरने मानता होय तो तेणे पोते पण अनिवार्यकारण उपस्थित थयां होय,तेमज ते प्रमाणे कर जोईप. बीजी कोइ पण रीते निर्वाह न थतो होय त्यारे संयमगुणना लाभनी खातर जिनेश्वरदेवतुं शासन हजारो वर्ष मुनि छत्र धारण करे. आ प्रमाणे संय- सुधी अविचल चालवानुं छे ए वात मगुणना निर्वाहने अनुलक्षीने टीकाकार निर्विवाद छे. तेमां केई केई देशनी, भगवन्तनुं व्याख्यान छे. अपवादमार्गनी केई केई जातीनी, केई केई स्वभाषनी, वस्तुने बताने मूख्यमार्ग पर जे कटाक्ष केई केई अवस्थानी व्यक्तिओ चारित्र करवो तेना जेवू बीजं कयुं अनभिशतान ग्रहण करनारी थशे. अने तेओने चिह्न होइ शके ! जेम "दुरादावसथान्मूत्रं पण केई केई स्थळोमा विहारो दूरात् पादावसेचनम् । दूराच्च दस्यु- अने कोई कोई जातना प्रसंगो भ्यो भाव्यं दूराच्च कुपिताद् गुरोः॥१॥ प्राप्त थशे अने तेमां कई कई मुकामथी दूर लघुनीति करवी, मुका- रीते चारित्रगुण अबाधित रहे अने तेनी मथी दूर पग धोवा, अने चोर तथा वृद्धि थाय ते बधुं जाणीने शानी भगः कोपायमान थएला गुरुथी दूर रहेवू, वन्तोए अपघाद मागे बताव्या छे. विशाआवं सामान्य वचन होवा छतां पण लधर्मसाम्राज्यवाही ज्ञानी भगवन्तोने कोई प्रतिष्ठित वैद्य अथवा डॉक्टर सकलजीयोना कल्याण माटे विकट पअत्यन्त बीमार माणसनी शारीरिक रिस्थितिमा लाभालामनी तुलनाए आवा स्थिति तपासीने कहे छे के आ माण- रस्ताओ बताववा ज पडे छे. जे निष्कासने पेशाब अने झाडो पथारीमां कराववा. रण जगद्वत्सल ज्ञानी भगवन्तोए जगतना हवे अहींयां अत्यन्त बीमार अवस्थामां जीवोना कल्याणने माटे शास्त्रो रच्यां, पथारीमा पेशाब अने झाडो कराववानुं त्यागवैराग्यनी पराकाष्ठाए पहोंचेला महान् वैद्य अथवा डॉक्टरनुं जे अपवादिक कठीन मार्गो बताव्या; ते पूज्य भगववचन छे ते हमेशने माटे वरेकने उप. न्तोना आवा आपवादिक वचनो कई योगमां लेवार्नु होतुं नथी अने तेना वक्ता दशामा, शा हेतुथी, केवा लाभालाभनी वैद्य अथवा डॉक्टर पर आक्षेप पण तुलनाए बतावाएला छे तेनो उडो विचार होई शकतो नथी. तेवीज रीते लो- कर्या सिवाय अबानताथी अथवा तेजो. कोत्तर धार्मिक आपवादिक विषयमा द्वेषने लईने जे आक्षेपो करवा, ते केटम For Private And Personal Use Only
SR No.521502
Book TitleJain Satyaprakash 1935 08 SrNo 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1935
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size15 MB
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