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धर्मा स्वामीकी ही रचना है। जिसमें पांच विभाग थे, जिसके तीसरे
श्रीसुधर्मास्वामी ग्यारह गणधर में विभागमें चौदह पूर्व थे, उन पांचवा गणधर थे, द्वादशांगीके निर्मा- चौदह पूर्वमेंसे ११-१२-१३-१४ ता थे अतएव सम्पूर्ण ज्ञाता थे । आप वें पूर्वके अर्थका विच्छेद हुआ। केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्षमें जा पधारे।
आपके बादमें अन्तिम श्रुतकेवली आपके शिष्यरत्न श्री जम्बूस्वामी
__ श्रीस्थूलभद्रजी हुए. आप सार्थ ग्यारह द्वादशांगीके ज्ञाता थे इतना ही नहीं वरन अंग दशपूर्व ओर मूल पाठमात्र ११, अन्तिमकेचली एवं मोक्षगामी है। जिन १२, १३, १४ वे पूर्व के पारंगतका निर्माणसमय बा.सा. ४६२-४६३ह ज्ञाता थे। आपका स्वर्गवासका समय ___ आपके बादमें(१)श्रीप्रभवस्वामी(२) वि.नि. सं० २१५ बी. सी. ३१२ श्रीशय्यंभवमरि(३) श्रीयशोभद्रसूरि (४) है। उसिही समय अन्तिम चारो पूर्वाका श्रीसम्भूतिविजय ओर (५) श्रीभद्रबाहु सर्वथा विनाश-विच्छेद हुआ.। स्वामी क्रमशः संपूर्ण द्वादशांगीके पार
आपके पीछे अनुक्रम से श्रीमहागामी, श्रुतकेवली पदसे विभूषित तथा
गीरीजी, श्री मुहस्तिसूरि, श्रीबहुलजी, विख्यात हुए । श्रीशय्यंभवमूरिजीने अपने पुत्र
श्रीस्वातिसूरि, श्री श्यामाचार्यजी, श्री
। शांडिल्यसूरिजी, श्री समुद्रसूरिजी और एवं शिष्य मनकमुनिजी के लिये श्रीद
श्रीवज्रस्वामीजी के समय पर्यंत ग्यारह शवैकालिक सूत्र बनाया, जो सूत्र आज भी विद्यमान है. ओर हर एक साधु
अंग ओर दशपूर्वका ज्ञान रहा। व साध्वीजी इसके प्रथम के चार श्रीश्यामाचार्यजीने श्रीपन्नवणा अध्ययन मुखपाठ करते है। आपका सूत्र बनाया, जो आजभी जैन ज्ञानकोश स्वर्ग गमन, वीर निर्वाण संवत् ७५ (एन्साइक्लोपीडीका ओफ धी जैनीझम) में हुआ।
सा विद्यमान है। ___ पंचम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वा
___ भगवान महावीर और श्रीआर्यवज मीजी ने छेद सूत्र-आगम ओर नियुक्ति
स्वामी के मध्यकालमें ओर भी भीन सत्र-आगम को रचना की । आपका स्वर्गप्रयाण वीर निर्वाण संवत् १७०
भीन अनेक आगमका निर्माण हुआ है बी. सी. ३५७-३५८ में हुआ। उसी वीर निर्वाण संवत् ५८४ विक्रम समय बारवा अंग दृष्टिवाद था, सं० ११४ मे श्री वज्रस्वामीका स्वर्ग
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