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तृतीय सुपुत्र द्वितीय धोर और बंकेय के पोता और लोकादित्य के सुपुत्र तृतीय धोर। इनमें द्वितीय धोर" (इ.स. 915) इस परिवार में बहुत ही प्रसिद्ध था। इसलिए यह जिनालय आपके समय में ही निर्मित हुआ होगा। डॉ. अ. सुंदरजी" कहते हैं कि इ.स. 925 ई. में यह जिनालय बन चुका था। बंकापुर किला के परकोटा के अंदर स्थित 'एल्लम्मा देवालय' के गर्भगृह के द्वारबन्ध के चौकाकार मंगल-फलक पर एक जिनबिंब रहा होगा, कालांतर में उसे निकाल दिया गया है। इस मंगल-फलक के ऊपरी भाग में छत के समान दिखाई देनेवाली रचना प्राय: 'मुक्कोडे' का एक भाग रहा होगा। अगर यह सही हो, तो इसके नीचे निश्चित ही जिनबिंब था। शायद यह द्वारबंध उपर्युक्त जिनालय का रहा होगा। इस प्रदेश में ही तीर्थंकर की मूर्तियाँ प्राप्त होने के कारण से यह कल्पना सही लगती है। ___ बंकापरु के कोट्टिगेरि प्रदेश में श्री हनुमंतप्पा गिरिमालजी 1975 ई. में अपने लिए नये घर के निर्माण के संदर्भ में नींव खोदते समय एक पार्श्वनाथ तीर्थंकर की मूर्ति और एक चौबीस तीर्थंकरों की मूर्ति प्राप्त हुई है। अब ये मूर्तियाँ धारवाड़ जिला के हुब्बळ्ळी के 'शर्मा इन्स्टीट्यूट' में स्थित सर्वेक्षण-कार्यालय के सामने हैं। लगभग बारहवीं सदी की चौबीस तीर्थंकर की मूर्ति के चरणपीठ पर कन्नड़-शिलालेख इसप्रकार है
श्रीमूलसंघद सूरस्तगणद श्रीणंति भ
ट्टारक देवर सिष्य बाळचंददेवर प्रेम (द) गुड्डनु जिंजिय बामयन मग लखय नु निट्टसंगिय बसदिगे माडिद चौव्वीस तीर्थंकर देवरु ।
मंगळ महा श्री श्री श्री। इस उल्लेख के अनुसार मालूम होता है कि 'निट्टासिंगिय जिनालय' को मूलसंघ-सूरस्थगण के श्रीनंदिभट्टारक देव के शिष्य बाळचंददेव के शिष्य जिंजिय बामय्य के बेटे लखमय (लख्खय्य) ने इस चौबीस तीर्थंकर की मूर्ति का निर्माण करवाया। इससे सिद्ध होता है कि लगभग ई.स. 11-12वी सदी में किला के अंदर निट्टिसिंगि नाम का जिनालय था।
हानगल तहसील के मंतगी ग्राम की 'धर्मा' नदी के तीर पर स्थित लगभग ई.स. बारहवीं सदी के शिलालेख के अनुसार कल्याण चालुक्य के महासामंत हानगल और बंकापुर के कदंब-परिवार के हरिकेसरीदेव, हरिकांतदेव और तोयिमदेव —इन तीनों राजाओं ने मिलकर कई जिनमंदिरों को दान देते समय बंकापुर के कोंतिमहादेवी जिनालय को भी दान दिया।" इस आधार से निश्चित होता है कि बंकापुर में 'कोतिमहादेवि' नाम का एक जिनालय था।
श्रवणबेळगोळ के भंडारी-जिनालय के पूर्वभाग में स्थित 1159 ई. के कन्नड़शिलालेख में लिखा गया है कि
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
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