________________
प्राच्य भारतीय अभिलेख एवं प्राकृतभाषा
-डॉ. शशिप्रभा जैन
आधुनिक ऐतिहासिक-दृष्टिकोण ने राजनैतिक-इतिहास के अध्ययन के साथ ही प्राचीन-संस्कृतियों और सभ्यताओं के विशद-अध्ययन की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया। विभिन्न पुरातात्त्विक साधनों द्वारा बीते हुए युग की सभ्यताओं का परिचय प्राप्त करने का प्रयत्न अन्वेषक-इतिहासज्ञों ने किए जिनमें प्राचीन-साहित्य, शिलालेख, ताम्रपत्र आदि अनेक वस्तुएँ प्राचीन संस्कृति के साथ-साथ तत्कालीन प्रचलित-भाषा, जिसमें वे लिखी गई हैं, उसका भी बोध कराती हैं। ____ पुरातात्त्विक-स्रोतों के अन्तर्गत सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण-स्रोत अभिलेख हैं। प्राचीन भारत के अधिकतर अभिलेख पत्थरों या धातु की चादरों पर खुदे मिलते हैं, अत: उनमें साहित्य की भाँति परिवर्तन संभव नहीं है। यद्यपि सभी अभिलेखों पर उनकी तिथि अंकित नहीं है, फिर भी अक्षरों की बनावट, उनमें प्रयुक्त भाषा के आधार पर उनका काल मोटे रूप में निर्धारित हो जाता है। ईसापूर्व तीसरी सदी से बारहवीं सदी तक भारत में अनेक अभिलेख उत्कीर्ण होते रहे हैं। प्राचीन समय के सहस्रों लेख प्रकाश में आए हैं तथा आज भी खुदाई से नए अभिलेखों का पता चल रहा है। इनमें सर्वाधिक अभिलेख अशोक के हैं, जिनमें प्राकृतभाषा का प्रयोग किया गया है। ये लेख भारत के प्रत्येक कोने से मिले हैं, जो समस्त भारत में प्राकृतभाषा के प्रचार एवं प्रसार का सब प्रमाण है।
- भारतीय शासकों के सबसे प्राक्कालीन पुरालेखीय-विवरण प्राकृतभाषा में मिलते हैं। मूलत: सारे भारत की पुरालेखीय भाषा प्राकृत थी। उत्तर-भारत के अभिलेखों में संस्कृत सबसे पहले लगभग पहली शती ई.पू. के उत्तरार्द्ध में दृष्टिगत होती है। उत्तर-भारत के अभिलेखों में प्राकृत के स्थान पर संस्कृत की स्थापना लगभग तीसरी शती के अंत तक पूर्ण हो सकी, जबकि दक्षिण-भारत के पुरालेखों में प्राकृत का अस्तित्व चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक रहा। अशोक-पूर्व अभिलेख ___ शौरसेनी-प्राकृत का क्षेत्र व्यापक रहा है और वह सामान्य-प्राकृत के रूप में भी प्रयुक्त होती रही है। अत: प्राचीम-राजाओं ने जो शिलालेख लिखवाए, उनमें जनता की
0062
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)