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भारत में शिक्षा देनेवाले गुरु-शिष्यों की परम्परा का यशस्वी वर्णन अनेकत्र प्राप्त होता है; किन्तु जिन्होंने कभी कोई ग्रन्थ न पढ़ाया हो, अथवा कोई कला या विद्या न सिखाई हो, ऐसे भी गुरु और उनके कृतज्ञ-शिष्य होने का कोई मर्मस्पर्शी निदर्शन है, तो वे हैं दीवानबहादुर आण्णा साहेब जी लढे एवं बैरिस्टर चम्पतराय जी।
इस विषय में लट्ठ जी की जीवनीपरक अंग्रेजी पुस्तक में जो उल्लेख है, उसका मूलानुगामी हिन्दी-अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है— “श्री आण्णा बाबा जी लढे मेरे गुरु हैं, क्योंकि 'जैनधर्म मात्र मरना सिखानेवाला (सल्लेखनापरक) धर्म है' —ऐसी मेरी समझ थी। श्री लढे जी ने मुझे जैनधर्म को सिखाया कि जैनधर्म कैसे जिऐं और कैसे मरें' – इन दोनों प्रकारों को सिखानेवाला धर्म है। जबतक मनुष्य जिए, तब तक उसके लिए आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, तथा मरण के समय आत्मध्यानपूर्वक मरे —ऐसा कहनेवाला जैनधर्म है। इसकारण से मेरी भ्रांति दूर हो गई और धर्मांतरण करने का विचार मैंने छोड़ दिया। उसके बाद जैनधर्म का अभ्यास करके मैंने जैनधर्म संबंधी पुस्तक लिखी। इसका श्रेय मेरे गुरुजी लढे जी के लिए है। ___यह उद्गार सन् 1932 ई. में स्तबनिधि में दक्षिण भारत जैनसभा' के अध्यक्ष-पद से बोलते हुए बैरिस्टर चम्पतराय जी ने व्यक्त किए। इसका उत्तर देते हुए श्री लटे जी ने बताया कि मैंने जैनधर्म-संबंधी एक छोटा-सा ग्रन्थ लिखा, परन्तु बैरिस्टर चम्पतराय जी ने जैनधर्म-संबंधी अनेक मोटे-मोटे ग्रन्थ लिखे। इससे गुरु की अपेक्षा शिष्य कितना आगे गया है, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं। और क्या कहें, गुरु की अपेक्षा शिष्य सवाया हो गया है। इसलिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ।”
वास्तविक स्थिति यह है कि बैरिस्टर चम्पतराय जी ने विलायत से वकालत पढ़कर आने के बाद जब जैनधर्म और समाज की स्थिति देखी, तो उन्हें ऐसा लगा कि इसमें मात्र सल्लेखना या समाधिमरण के लिए धर्म का निर्धारण है। अत: मरना सिखानेवाले धर्म में रहने से क्या फायदा?' —ऐसा सोचकर उन्होंने ईसाईधर्म अंगीकार करने का मन बनाया। जब यह बात श्री लट्ठ जी को पता चली, तो उन्होंने जैनधर्म की व्यापकता के बारे में उन्हें समझाया। तब चम्पतराय जी ने धर्मान्तरण का विचार तो त्याग ही दिया, उन्हें सन्मार्ग दिखानेवाले श्री लठे जी को अपना 'गुरु' माना तथा जीवनभर इसे कृतज्ञभाव से निभाया। फिर श्री चम्पतराय जी ने जैनधर्म-दर्शन का गहन अध्ययन कर युग की माँग के अनुरूप इसके अनेक पक्षों पर अंग्रेजी भाषा में पुस्तकें लिखीं। साथ ही गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा संस्थापित 'शांतिनिकेतन' में ई. सन् 1927 से वर्षों तक आपने जैनधर्म-दर्शन का अध्यापन कार्य भी किया।
-सम्पादक