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________________ नहीं हो सकता है और वस्तुस्वरूप के ज्ञान के बिना वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं? 'धवला' सिद्धान्त-शास्त्र में भी कहा है णत्थि णएहि विहूणं सुत्तं अत्थोव्व जिणवरमदम्हि । तो णयवादे णिवुणा मुणिणो सिद्धतिया होति ।। -(धवला पु० 1, खंड 1, भाग 1, गाथा 68) अर्थ:- जिनेन्द्र भगवान् के मत में नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है, इसलिए जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं, वे ही सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता हैं। अत: नयों का यथार्थज्ञान और उनका यथार्थ यथायोग्य प्रयोग जानना अति आवश्यक है। यह सब कहने का प्रयोजन यही है कि नय का यथार्थज्ञान शून्य होने से विवाद खड़े होते हैं। अत: मनीषी विद्वद्गणों से सविनय प्रार्थना है कि नयों की प्रयोग-पद्धति को यथार्थ आगमानुसार समझकर विवादों को समाप्त कर एक-दूसरे के विचारों को सुनने-समझने का सौजन्य प्रदर्शन कर भगवान् महावीर के शासन को मिल-जुलकर विस्तारित करने में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करें। भावी कर्तव्य ___ अपने बड़े पुण्यकर्म के उदय से जैनधर्म का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का सुअवसर मिला है, तो उसका स्वपर-हित में प्रयोगकर अपनी विद्वत्ता को सार्थक करें। दिगम्बर जैन-विद्वानों के समक्ष धर्मप्रचार का बहुत बड़ा क्षेत्र खाली पड़ा है। उसे भरने के लिए अपनी शक्ति और समय का सदुपयोग करें। वह धर्मप्रचार का खाली क्षेत्र इसप्रकार भरा जा सकता है1. प्रत्येक विद्वान् अपने ग्राम नगर के निवास स्थान में प्रात: सायं सरल भाषा में पात्रता के अनुरूप स्वाध्याय, प्रवचन अवश्य करें। 2. जैन बालकों में जैन-संस्कार डालने के लिए जैन-पाठशालायें स्थापित कराकर पूजनादि की विधि का प्रयोग करना अवश्य सिखायें । जैसे अवकाश के दिन उनसे विधिपूर्वक __ पूजनादि कराना और पूजन का प्रयोजन और भाव सिखाना आदि। 3. बच्चों में जैनत्व के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए बालोपयोगी सरल सचित्र-साहित्य __ की रचना कराना और बच्चों में वितरण करना। सरल-भाषा में सचित्र जैन-कथा, कहानी, नाटक आदि की पुस्तकें प्रकाशित कराना। 4. जैन विद्वानों को स्वयं धोती दुपट्टा पहिनकर पूजन करना, कराना चाहिए। इससे समाज में अच्छा प्रभाव पड़ता है। शास्त्र की गद्दी पर भी धोती पहिनकर ही बैठे। 5. रात्रिभोजन और अभक्ष्यभक्षण का जैन-विद्वानों में त्याग होता ही है। क्योंकि यह __ जैनाचार का प्रमुख अंग है। रात्रिभोजन का बहुत प्रचार हो रहा है, अत: जैनसमाज को उसकी हानि-लाभ का दिग्दर्शन कराना है। 6. ऐसे जैन-साहित्य की बहुत बड़ी आवश्यकता है, जिसमें विज्ञान के माध्यम से जिनेन्द्र 00 90 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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