SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तम संयम और महाव्रत -आचार्य विद्यानन्द मुनिराज “सवे हि ते संयम भावसुधी च इच्छति” – (सप्तम अशोक अभिलेख) -निश्चय से सभी आत्मायें संयम और भावशुद्धि चाहते है। संयम का जीवन में बहुत ऊँचा स्थान है। धर्म के क्षमा-- आर्जव, मार्दव आदि सभी अंग संयमपूर्वक ही पालन किये जा सकते हैं। जैसे—क्षमा में क्रोध का संयम किया जाता है, मार्दव में कठोर-परिणामों का संयम किया जाता है, आर्जव में मायाचार का संयम विहित है, तो सत्य में मिथ्या का नियमन आवश्यक है। सारांश यह कि जैसे माला के प्रत्येक पुष्प में सूत्र पिरोया होता है, वैसे धर्म के सभी अंगों में संयम स्थित है। मन, वचन, काय के योग को संयम कहते हैं और कोई भी सत्कार्य त्रियोग सम्भाले बिना नहीं होता। कार्य की सुचारुता तथा पूर्णता त्रियोग पर निर्भर है और त्रियोग का किसी पवित्र-लक्ष्य पर एकीभाव ही संयम है। इसी को सांकेतिक अभिव्यक्ति देते हुए 'इन्द्रियनिरोध: संयम:' कहा गया है। ___ इन्द्रियों की प्रवृत्ति बहुमुखी है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों के धर्म (स्वभाव) सहायक होते हैं। तथापि क्रियासिद्धि के लिए उन्हें संयम तथा केन्द्रित करना आवश्यक होता है। यदि कार्य करते समय इन्द्रिय समूह इधर-उधर दौड़ता रहेगा, तो यह स्थिति ठीक वैसी होगी, जो रथ में जुटे हुए विभिन्न-दिशाओं में दौड़नेवाले अश्वों से उत्पन्न हो जाती है। ऐसे रथ में बैठा हुआ यात्री कभी निरापद नहीं रह सकता। नीतिकारों ने तो यहाँ तक कहा है कि “यदि पाँचों इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय में भी विकार हो जाए, तो उस मनुष्य की बुद्धि-बल-शक्ति वैसे ही क्षीण हो जाती है, जैसे छिद्र होने पर कलश में से पानी निकल जाता है। पंचेन्द्रियस्य मर्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् । ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञादृते: पात्रादिवोदकम् । फिर जिन मनुष्यों की इन्द्रियक्षुधा इतनी बढ़ी हुई हो कि रात्रिंदिव पाँचों इन्द्रियों से भोगों का आस्वाद करते रहें, उनमें विनाश के चिह्न दिखायी दें, पतन होने लगे, तो क्या आश्चर्य?" इसी को लक्ष्य कर संयम की स्थूल-परिभाषा करते हुए इन्द्रियनिरोध को महत्त्वपूर्ण बताया गया है। संस्कृतभाषा, जिसका यह शब्द (संयम) है, बड़ी वैज्ञानिक भारती है। 'यम' धातु का अर्थ मैथुन' या विषयेच्छा' है और 'यम' धातु का अर्थ 'दमन' या 'संयम है। 1050 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy