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उनके पश्चात् संस्थान का कार्यभार उनके प्रिय-शिष्य जिनसेन-स्वामी ने संभाला। यह अविद्धकर्ण बाल-तपस्वी भी अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न थे। 'पार्वाभ्युदय' काव्य उनके काव्यकौशल का उत्तम-परिचायक है। सन् 837 ई० (शक सं० 759) में उन्होंने गुरु द्वारा अधूरे छोड़े कार्य—'जयधवल' के शेषांष को लगभग 40000 श्लोक-परिमाण पूर्ण किया। इस महाग्रन्थ का सम्पादन उनके ज्येष्ठ सधर्मा श्रीपाल ने किया था। ऐसा लगता है कि तदनन्तर जिनसेन ने 'महापुराण' की रचना प्रारंभ की; किन्तु वह उसके आद्य 10380 श्लोक ही रच पाये और उनमें प्रथम तीर्थकर आदिनाथ का चरित्र भी पूरा न कर पाये कि 850 ई० से कुछ पूर्व ही उनका निधन हो गया। राष्ट्रकूट-सम्राट अमोघवर्ष-प्रथम नृपतुंग (815-877 ई०) उन्हें अपना गुरु मानता था और यदा-कदा राज्यकार्य से विराम लेकर उनके तपोवन में आकर उनके सान्निध्य में समय व्यतीत करता था। वह स्वयं भी अच्छा विद्वान् और कवि था। स्वामी जिनसेन के समकालीन विद्वानों में उनके गुरु एवं सधर्माओं के अतिरिक्त हरिवंशपुराणकार जिनसेनसूरि, स्वामि विद्यानन्द, अनन्तवीर्य द्वितीय, अर्ककीर्ति, विजयकीर्ति, स्वयंभूपुत्र कवि त्रिभुवनस्वयंभू, शिवकोटखाचार्य, वैद्यक-शास्त्र कल्याणकारक के रचियता उग्रादित्य, गणितसारसंग्रह के कर्ता महावीराचार्य और वैयाकरणी शाकटायन पाल्यकीर्ति उल्लेखनीय हैं। इनमें से कम से कम अन्तिम तीन को भी सम्राट अमोघवर्ष का प्रश्रय प्राप्त हुआ था।
स्वामी जिनसेन के प्रधान-शिष्य आचार्य गुणभद्र थे, जिन्होंने गुरु के अधूरे छोड़े 'आदिपुराण' को संक्षेप में पूरा किया तथा उत्तरपुराण' के रूप में अन्य तेईस तीर्थंकरों का चरित्र निबद्ध किया। उन्होंने 'आत्मानुशासन' और 'जिनदत्तचरित्र' की भी रचना की। कहा जाता है कि सम्राट् अमोघवर्ष ने अपने युवराज कृष्ण-द्वितीय का गुरु उन्हें नियुक्त किया था। गुणभद्राचार्य का निधन कृष्ण-द्वितीय के राज्यकाल (878-914 ई०) के प्रारम्भ में लगभग 880 ई० में हो गया लगता है। उनके समय तक इस परम्परा के गुरुओं का ही वाटग्राम के केन्द्र से सीधा एवं प्रधान-सम्बन्ध रहा और वह पूर्ववत् फलता-फूलता रहा; किन्तु गुणभद्र के प्रधान-शिष्य लोकसेन ने अमोघवर्ष के जैन-सेनापति बंकेयरस के पत्र लोकादित्य के प्रश्रय में उसकी राजधानी बंकापुर' को अपना केन्द्र बना लिया प्रतीत होता है, जहाँ उसने 898 ई० में गुरु द्वारा रचित 'उत्तरपुराण' का 'ग्रन्थविमोचन-समारोह' किया था। ____ हाल में ही नासिक जिले के वजीरखेडा' ग्राम में प्राप्त दो ताम्रशासनों से पता चलता है कि कृष्ण-द्वितीय के पौत्र एवं उत्तराधिकारी राष्ट्रकूटवंशी राजा इन्द्र-तृतीय (914-922 ई०) ने अपने सिंहासनारोहण के उपलक्ष्य में, एक के द्वारा चन्दनापुर-पत्तन' (चन्द्र या चन्द्रपुर) की जैन-बसति की और दूसरे के द्वारा नेरपत्तन' (बडनगरपत्तन या वाटनगर) की जैन-बसदि को भूमि आदि का दान दिया था। ये दान द्रविडसंघ वीरगण की ची यान्वय शाखा या विर्णयान्वय शाखा वर्धमान-गुरु के शिष्य लोकभद्र को समर्पित किये गये, ऐसा लगता
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001