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________________ 1 व्यवस्था तो राजपरिषदों में ही बहुत है । स्वयं भूमि पर, शिलातल पर अथवा चटाई पर बैठनेवाले मुनियों के पास आनेवाले को गद्दी - मसनद (गाव - तकिया) या मृदुल मखमली-गलीचों की अपेक्षा नहीं होती। वह तो मुनिचरणों में उपासीन होकर, त्यागी के चरणों की धूलि ललाट पर लिम्पन कर प्रसन्न होता है। उसके लिए सम्भ्रम के उपकरण प्रस्तुत कर उसके आगमन को अतिरंजित बनाना वीतरागमुनिचर्या से विपरीत है । श्रमणों के आराध्य भगवान् के लिए तो स्तुति के छन्द लिखते समय 'इन्द्रः सेवां तव सुतनुतां' कहा गया है । विगौरव का दोष जानबूझकर नहीं लेना ही श्रेष्ठ है। इस विषय में सिकन्दर और दिगम्बर मुनि साक्षात्कार का एक प्रसंग इतिहासप्रसिद्ध है । त्यागी को उस आरण्यक नदी के समान होना चाहिए, जिसके तट पर हाथी पानी पीने आए, तो वह हर्षित होकर किनारों पर उच्चलित नहीं होती और हरिण आए, तो मन छोटा नहीं करती। उसके दो पाटों की अंजलि का नीर सबके लिए समान सुलभ है। मुनि-त्यागी का स्थान सम्राटों से भी ऊपर है। सम्राट् भी त्यागी के आशीर्वाद की अपेक्षा करता है और उससे ऐश्वर्य, विभूति, कृपाप्रसाद चाहता है । किन्तु मुनि निरपेक्ष है । यदि संसार आशा दास है, तो त्यागी ने आशा को दासी बना लिया है। वे मुनि मनुष्यपर्यायी होते हुए भी मनुष्यकोटि से ऊपर हैं । चिन्ता को वशीभूत करने से उन्हें सिद्ध (तपस्वी) कहा जाता है । 'जे नर चिन्ता बस करहिं, ते माणस नहि सिद्ध' – ऐसा कहते हुए उनका स्तवन किया गया है और इतने पर भी वे केवल 'बाह्यग्रन्थिविहीना: ' ही हों, तो क्या कहा जा सकता है? वह तो अंगार में विद्रुम का भ्रम ही कहा जा सकता है। प्रस्तुत निबन्ध 'पिच्छि और कमण्डलु' मुनियों के द्वारा धारणीय शौच-संयमोपकरण-विषयक है और ज्ञानोपकरण के रूप में शास्त्र रखने का, स्वाध्याय तत्पर रहने का आदेश शास्त्रों में दिया गया है, अत: लेख- समाप्ति से पूर्व यह आवश्यक है कि 'मूलाराधना' की उन पंक्तियों को स्मरण कर लिया जाए, जिनमें शिक्षा ( स्वाध्याय) का आग्रह करते हुए आचार्य ने कहा है कि- 'प्राण जब कण्ठगत हों, तब भी मुनि, तपस्वी को प्रयत्नपूर्वक आगमस्वाध्याय करना चाहिए।' आचार्य श्रीकुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है— ' आगमचक्खू साहू' और 'अज्झयणमेव झाणं' – साधु की आँखें उसका शास्त्र है। जहाँ उसे चर्या में संशयविकल्प हों, तो तत्काल शास्त्रों की शरण लेनी चाहिए। शास्त्र बतायेंगे कि वह क्या करे? क्या न करे? और त्याग का ध्यान उसका अध्ययन है । अध्ययन द्वारा ही वह सम्यक्त्व के विषय में जानकारी प्राप्त करता है। शास्त्रों की सीप से सम्यक्त्व के मुक्ताफल मिलते हैं। तन्मयता बढ़ती है और ज्ञानसम्पन्न होने से स्व-पर का बोध होता है । इसप्रकार ध्यान द्वारा जो परिणामविशुद्धि होती है, वही शास्त्रस्वाध्याय से सिद्ध होती है । यही सोचकर आचार्य कहते हैं— 'अध्ययनम् एव ध्यानम्'; यहाँ 'एव' शब्द निश्चयपरक है । वास्तव में जिनसरस्वती के दर्शन करनेवालों ने तन्मय होकर अध्ययन में ही ध्यान तथा समाधि प्राप्त की है । जिन्होंने दुस्तर-संसारवारिधि को तैरकर पार जाने के लिए पिच्छि- कमण्डलु तथा शास्त्र तीन प्राकृतविद्या -अक्तूबर-दिसम्बर '2001 0019
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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