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मोक्षमार्ग में प्रवर्तित हो सके । आचार्य उमास्वामी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' (अपरनाम मोक्षशास्त्र) में इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए रत्नत्रय को मोक्षमार्ग या मोक्ष का सोपान निरूपित किया है- “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:।" ___जैनाचार्यों ने 'ओम्' शब्द का विश्लेषण या परिभाषा करते हुए बतलाया कि 'अ' ज्ञान का प्रतीक है, 'उ' दर्शन का प्रतीक है और 'म्' चारित्र का प्रतीक है। इन तीन वर्णों (अ+उ+म्) से निष्पन्न 'ओम्' रत्नत्रय का प्रतीक है। इसीलिए जो 'ओम्' या 'ओंकार' की उपासना करता है, वह स्वरूपाचरण करता हुआ स्वरूपावस्थित हो जाता है। यही स्थिति उस चरम-अनुत्तर-लक्ष्य प्राप्ति का साधन बनती है। वस्तुत: मन्त्रशक्ति के द्वारा मनुष्य के अन्त:करण में जो ऊर्जा प्रस्फुटित होती है, उससे मनुष्य के अन्तस् में एक विशिष्ट प्रकार का रूपान्तर होता है और कतिपय विशिष्ट शक्तियों का विकास होता है। इसे हम जानते हैं और मानते ही हैं। किन्तु कठिनाई यह है कि हम मानते अधिक हैं और जानते कम हैं। ओंकार-मंत्र का जप करनेवालों की भी यही स्थिति है। इसीलिए वे लक्ष्य प्राप्ति से वंचित या दूर रहते हैं। अन्य मंत्रों का जप करनेवालों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है।
'ओम्' या 'ओंकार' एकाक्षरी-महामंत्र है। वह मनोकामना की पूर्ति करनेवाला और मोक्ष देनेवाला होता है। यह योगीजनों के लिए विशेषरूप से अभीष्ट है। इसकी क्रियाशीलता एवं प्रभाव से प्राणशक्ति का विकास होता है, इसलिए इससे मनोकामना की पूर्ति एवं वांछित फल की प्राप्ति होती है। एकाग्रतापूर्वक इसका जप करने से अन्त:करण शुद्ध होता है और चित्त निर्मल होता है, जो अन्तत: मोक्ष-प्राप्ति में सहायक होता है। ओंकार-महामंत्र की फलश्रुति बतलाते हुए आचार्यों ने लिखा है—
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं देवमोंकारायं नमो नमः ।। अर्थात् योगीजन नित्य बिंदु-संयुक्त ओंकार का ध्यान करते हैं। कामना की पूर्ति करनेवाले और मोक्ष को देनेवाले ओंकार (ओम्) को बारम्बार नमस्कार है। __ योगशास्त्र में 'ओम्' या ओंकार का विशेष महत्त्व है। प्राणायाम में जब श्वासोच्छ्वास के द्वारा प्राणवायु या प्राणतत्त्व को प्रतिष्ठापित करते हैं, तो प्राण-शक्ति अप्रत्याशितरूप से अभिवर्धित हो जाती है। हम निरन्तर श्वास लेते हैं, उसके द्वारा प्राणतत्त्व निरन्तर गतिशील रहता है। प्राण की धारा विद्युत की धारा की भाँति होती है। वह जितनी बलवती होती है, उतनी ही हमारी क्षमताओं में वृद्धि होती है। हमारे स्थूल शरीर के अन्तस् में विद्यमान तैजस शरीर के माध्यम से प्राण की धारा नि:सृत होती है। वह हमारे सम्पूर्ण जीवन-तंत्र को संचालित करती है। यही कारण है कि हमारा तन्त्र निरन्तर गतिशील रहता है। योग- शास्त्रीय गणना के अनुसार एक व्यक्ति एक दिन (24 घंटे) में इक्कीस
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प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001