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औंकार महामंत्र और उसका प्रभाव
—आचार्य राजकुमार जैन
जैन-परम्परा में शब्दशास्त्र एवं उच्चारण- प्रक्रिया का शुभारम्भ ही 'ओम्' या 'ॐ' की मंगलध्वनि से माना गया है। तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि ऊँकारमयी है, तो प्रत्येक मंत्र के पहिले भी 'ॐ' का उच्चारण अनिवार्य है । यहाँ तक कि पढ़ाई-लिखाई के पहिले ही दिन 'ॐ नमः सिद्धम्' की परिपाटी थी, जिसका बाद में परिवर्तितरूप 'ओनामासीधम्' हो गया। इस ‘ॐ’ ध्वनि का योगशास्त्र से लेकर पूजाविधानपरक - साहित्य में, तथा व्यावहारिक जीवन से लेकर उत्कृष्टतम-साधनापद्धति में अबाध - प्रसार एवं प्रभाव माना गया है। इसे अपने आप में एक मंत्ररूप भी माना गया है तथा इसे पंच परमेष्ठियों के पाँच मंगल-नामों के प्रथमाक्षरों से निष्पन्न भी प्रतिपादित किया गया है। अतः इसका विस्तृत विवेचन तो हजारों पृष्ठों में हो सकता है, फिर भी इसके बारे में संक्षिप्त विवेचन इस आलेख में विद्वान् लेखक ने श्रमपूर्वक प्रस्तुत किया है।
—सम्पादक
मंत्रशक्ति अचिन्त्य होती है और उसका प्रभाव किसी सीमा की अपेक्षा नहीं रखता है। कदाचित् मंत्रशक्ति कालजयी भी होती है, जो भौतिक जगत् को तो प्रभावित करती ही है, हमारे आन्तरिक (मानस एवं बौद्धिक ) - जगत् को भी अपेक्षितरूप से प्रभावित करती है । सामान्यत: हम सभी प्राणी (विशेषत: मनुष्य ) दो प्रकार के जगत् में जीते हैं। एक हमारा बाह्यजगत् है और दूसरा आन्तरिक - जगत् है, जिसे आध्यात्मिक जगत् भी कहते हैं । बाह्यजगत् में हमारा सम्पूर्ण समाज होता है, जबकि अन्तर्जगत् में हम अकेले होते हैं । हमारे समग्र-ज्ञान का केन्द्र अन्तर्जगत् है, जो सदैव अन्तस् में ही अधिष्ठित होता है, वह कभी बाहर नहीं आता है। यदि मनुष्यमात्र ज्ञानी ही होता, तो वह नितान्त अकेला होता । वह कभी भी सामाजिक नहीं बन पाता । आज स्थिति यह है कि वह सामाजिक अधिक है और अकेला कम है। हमारा सामाजिक-जीवन निर्मित होता है भाषा के द्वारा, शब्द के द्वारा । जब ज्ञान और भाषा का योग हुआ, तब मनुष्य अन्तर्जगत् से बाह्यजगत् में आया और उसने अपना विस्तार किया। शब्द के माध्यम से मनुष्य के बाह्यजगत् का न केवल निर्माण हुआ, अपितु उसका पर्याप्त-विस्तार भी हुआ ।
‘ओम्’ एक ध्वन्यात्मक शब्द है, जो हमारे सम्पूर्ण अन्तर्जगत् में प्रकट या अप्रकट रूप
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर 2001
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