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आचार्य शिवकोटि ने 'भगवती आराधना' में साधुओं के अंतर-बाह्य स्वरूप, आचार-व्यवहार एवं चर्या का विस्तृत-वर्णन किया है, जो आत्मार्थीजनों को मूलत: पठनीय और मननीय है। प्रस्तुत आलेख में साधु-संघ के निवास, निवास की अवधि एवं विहार आदि का वर्णन किया है, जो इसप्रकार हैसाधु-संघ का निवास-स्थल और निवास-काल
आत्मशोधन की जैन-दार्शनिक-प्रक्रिया पूर्णत: मनोवैज्ञानिक, व्यवहारिक और आत्माभिमुखी है। इसमें मानवीय कमजोरियों का विधान किया है। एकाकी पुरुष स्वच्छंदी हो जाता है और मानवीय कमजोरियों का सहज ही शिकार हो जाता है अत: श्रमणों को संघ में रहने और ससंघ विहार करने की जिनेश्वरी आज्ञा है। __ 'मूलाचार' के 'अनगारभावनाधिकार' के अनुसार साधु शरीर से निर्मम होने से आवास रहित हैं। जहाँ सूर्य अस्त होता है, वहीं ठहर जाते हैं, किसी से प्रतिबद्ध नहीं हैं। वे बिजली के समान दिखते और चले जाते हैं। वर्षायोग के (चातुर्मास के) अपवाद को छोड़कर साधु धैर्यवान प्रासुक-विहारी हैं और स्त्री, पशु तथा नपुंसक आदि से वर्जित एकान्त-प्रदेश में निवास करते हैं। मूलाचार' की मूल-गाथा इसप्रकार है :
गामेयरादिवासी णयरे पंचाहवासियो धीरा।
सवणा फास-विहारी विवित्त-एगंतवासी य ।। __एक स्थान पर अधिक समय ठहरने से औद्देशिक' आदि का दोष आते हैं और स्थान से मोह भी हो जाता है। साधुओं का विहार 'अनियत' कहलाता है। 'मूलाचार' की गाथा 911 में श्रमणों के 'दश कल्प' बताये हैं। इनमें एक 'मास-कल्प' है। इसके अंतर्गत लोकस्थिति एवं अहिंसादि-व्रतों के पालनार्थ वर्षायोग-ग्रहण के एक-मास-पूर्व या एक-मासबाद तक ठहरा जा सकता है। इसीप्रकार प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास पर्यंत किसी-स्थान पर ठहर कर दूसरे मास में विहार करना चाहिये। इसे 'मासैकवासता' कहते हैं। कल्पपरिस्थितिजन्य- विकल्प या गुण-दोषानुसार निर्णय का सूचक है। ___ साधु-संघ एकान्त-वसतिका, पर्वत के तट, कटक, कन्दराओं और गुफा या श्मशान आदि में रहकर जिनवचनों का उत्साह-चित्त से अनुचिंतन करते हुए निवास करता है। उनका निवास-स्थान (वसतिका) में ममत्व नहीं होता। बोधपाहुड' गाथा 42 में भी दीक्षा-योग्य स्थान दशति हुए कहा है— सूनाघर, वृक्ष का मूल, कोटर, उद्यान, वन, श्मशान-भूमि, पर्वत की गुफा या शिखर, भयानक वन और वसतिका में दीक्षा-सहित साधु ठहरें। साधु और आर्यिकाओं के पृथक् निवास स्थान
'मूलाचार' में साधुसंघ और आर्यिका-संघ के पृथक्-पृथक् निवास का निर्देश है और आर्यिकाओं के आवास में मुनिचर्या एवं संसर्ग वर्जित किया है। इस सम्बन्ध में गाथा 177 से गाथा 196 मूलत: पठनीय है।
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001
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