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________________ साम्राज्य का आधा भाग दे देने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। अब चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने नन्द-साम्राज्य के सीमावर्ती-प्रदेशों पर अधिकार करना शुरू किया। एक के पश्चात् एक ग्राम, नगर, दुर्ग और गढ़ छल-बल-कौशल से जैसे भी बना, वे हस्तगत करते चले। विजित-प्रदेशों एवं स्थानों को सुसंगठित एवं व्यवस्थित करते हुए तथा अपनी शक्ति में उत्तरोत्तर-वृद्धि करते हुए अन्तत: वे राजधानी 'पाटलिपुत्र' तक जा पहुँचे। __ नगर का घेरा डाल दिया गया और उस पर अनवरत भीषण-आक्रमण किये गये, चन्द्रगुप्त के पराक्रम, रणकौशल एवं सैन्य-संचालन-पटुता, चाणक्य की कूटनीति एवं सदैव सजग गृद्ध-दृष्टि तथा पर्वत की दुस्साहसपूर्ण बर्बर युद्धप्रियता, तीनों का संयोग था। नन्द भी वीरता के साथ डटकर लड़े, किन्तु एक-एक करके सभी नन्दकुमार लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। अन्तत: वृद्ध-महाराज 'महापद्मनन्द' ने हताश होकर धर्मद्वार के निकट हथियार डाल दिये और आत्मसमर्पण कर दिया। वृद्ध नन्द ने चाणक्य को धर्म की दुहाई देकर याचना की कि उसे सपरिवार सुरक्षित अन्यत्र चला जाने दिया जाए। चाणक्य की अभीष्ट-सिद्धि हो चुकी थी। उसकी भीषणप्रतिज्ञा की लगभग पचीस-वर्ष के अथक प्रयत्न के उपरान्त प्राय: पूर्ति हो चुकी थी और वह क्षमा का महत्त्व भी जानता था, अतएव उसने नन्दराज को सपरिवार नगर एवं राज्य का परित्याग करके अन्यत्र चले जाने की अनुमति उदारतापूर्वक प्रदान कर दी और यह भी कह दिया कि “जिस रथ में वह जाए, उसमें जितना धन वह अपने साथ ले जा सके, वह भी ले जाए।" किन्तु जैसे ही नन्द का रथ चलने का हुआ नन्द-सुता 'दुर्धरा' अपरनाम 'सुप्रभा' ने शत्रु-सैन्य के नेता विजयी-वीर चन्द्रगुप्त के सुदर्शनरूप को जो देखा, तो प्रथमदृष्टि में ही वह उस पर मोहित हो गयी और प्रेमाकुल-दृष्टि से पुन:-पुन: उसकी ओर देखने लगी। इधर चन्द्रगुप्त की वही दशा हुई और वह भी अपनी दृष्टि उस रूपसी राजनन्दिनी की ओर से न हटा सका। इन दोनों की दशा को लक्ष्य करके नन्दराज और चाणक्य दोनों ने ही उनके स्वयंवरित-परिणय की सहर्ष-स्वीकृति दे दी। तत्काल सुन्दरी 'सुप्रभा' पिता के रथ से कूदकर चन्द्रगुप्त के रथ पर जा चढ़ी। किन्तु इस रथ पर उसका पग पड़ते ही उसके पहिये के नौ आरे तड़ाक से टूट गये (णव अरगा भग्गा)। सबने सोचा कि यह अमंगल-सूचक अपशकुन है, किन्तु समस्त विद्याओं में पारंगत चाणक्य ने उन्हें समझाया कि 'भय की कोई बात नहीं है, यह तो एक शुभ-शकुन है और इसका अर्थ है कि इस नव-दम्पती की सन्तति नौ पीढ़ी तक राज्यभोग करेगी।' __ अब वीर चन्द्रगुप्त मौर्य नन्ददुहिता राजरानी सुप्रभा को 'अग्रमहिषी' बनाकर मगध के राज्य-सिंहासन पर आसीन हुआ और नन्दों के धन-जनपूर्ण विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य का अधिपति हुआ। इसप्रकार ई०पू० 317 में पाटलिपुत्र में नन्दवंश का पतन और उसके स्थान में मौर्यवंश की स्थापना हुई। चन्द्रगुप्त को 'सम्राट' घोषित करने के पूर्व प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 00 21
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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