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________________ आवरण पृष्ठ के बारे में आवरण-पृष्ठ पर मुद्रित चित्र 21 जुलाई 2001 को कानपुर (उ०प्र०) में केन्द्र-सरकार द्वारा जारी किये गये डाक-टिकिट का है। इस टिकिट को तत्कालीन संचारमंत्री श्री रामविलास पासवान ने जारी किया था। चार रुपये मूल्य के इस नयनाभिराम डाकटिकिट का परिचय देते हुए नई दिल्ली से प्रकाशित हिन्दुस्तान' (दैनिक) के 19 जुलाई के संस्करण (पृष्ट 7) पर लिखा है कि “डाक-विभाग इतिहास की महत्त्वपूर्ण हस्ती चन्द्रगुप्त मौर्य पर 4 रुपये का डाकटिकिट निकालने जा रहा है। ...चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन 25 वर्ष तक चला। जैन-परम्परा में माना जाता है कि भद्रबाहु से प्रेरित होकर उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। उसने न केवल अपने साम्राज्य की सीमा बढ़ायी, बल्कि सशक्त प्रशासन-प्रणाली कायम की और राज्य की आर्थिक नींव मजबूत की।" व्यक्तिगतरूप से सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य धार्मिक भी था और साधु-सन्तों का विशेष आदर करता था। जैन अनुश्रुतियों में उसे सर्वत्र शुद्ध क्षत्रिय-कुलोत्पन्न कहा है। ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के प्राचीन सिद्धान्त-शास्त्र 'तिलोयपण्णत्ति' में चन्द्रगुप्त को उन 'मुकुटबद्ध माण्डलिक-सम्राटों में अन्तिम' कहा गया है, जिन्होंने दीक्षा लेकर अन्तिम-जीवन जैनमुनि के रूप में व्यतीत किया था। वह आचार्य भद्रबाहु-श्रुतकेवली की आम्नाय का उपासक था, और उनका ही पदानुसरण करने का अभिलाषी था। अतएव लगभग पच्चीस वर्ष राज्यभोग करने के उपरान्त ईसापूर्व 298 में पुत्र बिन्दुसार को राज्यभार सौंपकर और उसे गुरु चाणक्य के ही अभिभावकत्व में छोड़ दक्षिण की ओर प्रयाण कर गया। मार्ग में सौराष्ट्र प्रान्त के गिरिनगर (गिरनार) की जिस गुफा में उसने कुछ दिन निवास किया, वह तभी से चन्द्रगुफा' कहलाने लगी। ध्यातव्य है इसी चन्द्रगुफा' में धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त एवं भूतबली नामक मुनिद्वय को अवशिष्ट श्रुतज्ञान का उपदेश दिया था। वहाँ से चलकर यह राजर्षि कर्णाटकदेशस्थ श्रवणबेलगोल' पहुँचा, जहाँ आचार्य भद्रबाहु दिवंगत हुए। उस स्थान के एक पर्वत पर मुनिराज चन्द्रगुप्त (दीक्षोपरांत नाम विशाखाचार्य') ने तपस्या की और वहीं कुछ वर्ष उपरान्त सल्लेखनापूर्वक देहत्याग किया। उनकी स्मृति में ही वह पर्वत 'चन्द्रगिरि' नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसकी जिस गुफा में उन्होंने समाधिमरण किया था, उसमें उनके चरण-चिह्न बने हैं और वह स्थान चन्द्रगुप्त-बसति' के नाम से प्रसिद्ध है। ___मूलसंघी-मुनियों का चन्द्रगुप्तगच्छ' या 'चन्द्रगच्छ' इन्हीं चन्द्रगुप्ताचार्य (विशाखाचार्य) के नाम पर स्थापित हुआ माना जाता है। इस महान् जैन-सम्राट के समय में ही भारतवर्ष प्रथमबार तथा अन्तिमबार अपनी राजनीतिक-पूर्णता एवं साम्राज्यिक-एकता को प्राप्त हुआ और मगध- साम्राज्य के रूप में भारतीय-साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष को पहुँचा था। सम्पादक
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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