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ब्राह्मीलिपि' है, अत: वर्णाकृति के साम्य के कारण कई विद्वानों ने इनके संस्कृतनिष्ठ पाठ बना दिये हैं, तो कहीं-कहीं पर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा निर्मित पाठों में उनकी लिपि के प्रभाव के कारण भी पाठदोष आ गये हैं। जैसे— 'न' एवं 'ण' इन दोनों वर्गों के लिए अंग्रेजी में 'N' का ही प्रयोग किया जाता है। उसका देवनागरी लिपि' में रूपान्तरण करते समय प्राय: सभी विद्वानों ने 'न' का ही प्रयोग किया और 'ण' की प्रवृत्ति प्राय: लुप्त हो गयी। जबकि यह मूल-शिलालेखों में विद्यमान है। ___ अब ऐसे पाठदोष वाले पाठों को आधार बनाकर कई आधुनिक विद्वान्, जो न तो प्राचीन ब्राह्मीलिपि के और न ही प्राचीन प्राकृत के विद्वान् हैं, कहते हैं कि इन शिलालेखों में 'ण' ध्वनि है ही नहीं। मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि अशोक के अभिलेखों में 'न' का प्रयोग कदापि नहीं है, किंतु कई जगहों पर 'ण' को 'न' भी बनाया गया है यह मेरा कथ्य है।
इसीप्रकार ईसापूर्व के प्राचीन ग्रंथों में भी परवर्ती प्रतिलिपिकारों एवं आधुनिक कई सम्पादनकला के अविशेषज्ञ सम्पादकों की असावधानियों, भाषाज्ञान न होने के कारण से भी मूलपाठों में महाराष्ट्रीकरण आ जाने से इन ग्रंथों के भाषिक स्वरूप पर आक्षेप करने लगे हैं।
ईसापूर्वयुगीन शौरसेनी साहित्य प्रमुखत: आचार्य कुन्दकुन्द-रचित प्राप्त होता है। सवाल यह है कि सुदूर दक्षिण के आचार्य मध्यदेश की शौरसेनी प्राकृत' में साहित्य-सृजन कैसे कर सकते हैं? क्योंकि उस समय दक्षिण में आर्यभाषा का प्रभाव था। इस बारे में कौशितिकी ब्राह्मण' में आया यह उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है— “उत्तर में बहुत विद्वत्तापूर्ण वाणी बोली जाती है और शुद्ध वाणी सीखने हेतु लोग उत्तराखण्ड को जाते थे; . जो वहाँ से सीखकर आता है, उसे सुनने के लिए लोग उत्सुक रहते हैं।" ___आधुनिक समालोचक विद्वान् डॉ जगदीश चंद्र जैन लिखते हैं कि “मथुरा जैनआचार्यों की प्रवृत्तियों का प्रमुख केन्द्र रहा है, अतएव उनकी रचनाओं में शौरसेनी आना अति स्वाभाविक है।” इसप्रकार शेष भारत के लोगों का उत्तर की भाषा शौरसेनी के प्रति अगाध आकर्षण तथा जैन-संघ का दक्षिण भारत में दीर्घप्रवास - यह दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं, जिनके फलस्वरूप शौरसेनी प्राकृत उपर्युक्त मध्यदेश के विशालतम क्षेत्र में प्रसरित हो गयी। इसी भाषा से परवर्ती अपभ्रंश एवं विविध क्षेत्रीय भाषाओं एवं बोलियों का उद्भव और विकास हुआ है।
इसकारण शौरसेनी प्राकृतभाषा और साहित्य के अध्ययन के बिना हम भारतीय भाषाओं, संस्कृति, इतिहास एवं साहित्य आदि के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं ले सकते हैं।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '20000