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4. पदलोप
प्राकृतभाषा के अंश में जितने पदों या शब्दों का प्रयोग होता है, उनकी संस्कृत-छाया में कभी-कभी असावधानीवश किसी पद या शब्द का प्रयोग छूट जाने से मात्र संस्कृत-छाया को पढ़नेवालों के लिए वह मूलपाठ गायब ही हो जाता है। तथा कभी-कभी मात्र अभिप्राय को लेकर संस्कृत-छाया बनानेवाले सम्पादक उसी अभिप्राय के अन्य कोई संक्षिप्त पद प्रयुक्त कर देते हैं, तो कभी-कभी जानबूझकर भी कोई पद छोड़ दिया गया है।
उपर्युक्त स्थितियों में से कोई भी स्थिति हो, किन्तु मूलग्रन्थ-कर्ता के पाठ का लोप करने के अपराध से वे नहीं बच सके हैं। यह अक्षम्य स्थिति है। इसके कतिपय दृष्टान्त द्रष्टव्य हैं- 'इअ जस्स पएहिं परम्पराई की इत्येतस्य परम्परया' संस्कृत-छाया दी गयी है। यहाँ 'पएहिं पद का लोप हो गया है। 'अभिज्ञानशाकुन्तल' में भी एक जगह 'तओवण' की संस्कृतछाया में मात्र वन' का प्रयोग हुआ है। यहाँ तपो' पद का लोप हुआ
___ 'कप्पूरमंजरी में ही एक जगह प्रयुक्त सहसा' पद का संस्कृत-छायाकार ने पूर्णत: लोप कर उसके स्थान पर यादृच्छिक रूप से 'भुवनें पद का प्रयोग अपनी ओर से कर दिया है।
5. छन्दानुरूप आदर्श-प्रयोगों का अभाव :- एक भाषा से दूसरी भाषा में मात्र छायाकरण करने पर यह विरूप स्थिति बनना अत्यन्त स्वाभाविक है; क्योंकि दोनों के वर्ण-प्रयोगों की, शब्द एवं धातुरूपों आदि की स्थितियाँ भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी संस्कृत-छाया के छन्द को देखकर कोई भी पाठक या छात्र यह कैसे अनुमान लगा सकता है कि मूलकर्ता ने कैसा छन्द प्रयोग किया था? अथवा संस्कृत-छाया के छन्द में जो मात्रागत या वर्णगत दोष प्राप्त हो रहे हैं, वे मूल छन्द में नहीं थे? यथा— (प्राकृत में) "चित्ते वहुट्टदि ण खुट्टदि सा गुणेसुं,
__ सेंज्जाइ लुट्टदि विसप्पदि दिहमुहेसुं।
वोलम्मि वदि पवट्टदि कव्वबंधे,
झाणे ण तुट्टदि चिरं तरुणी तरट्टी।।" (संस्कृत में) "चित्ते प्रस्फुटति न क्षीयते सा गुणेषु,
शय्यायां लुठति विसर्पति दिङ्मुखेषु । वचने वर्तते प्रवर्तते काव्यबंधे,
ध्याने न त्रुट्यति चिरं तरुणी चलाक्षी।।" यह 'वसन्ततिलका' छन्द है, जिसके संस्कृत-छायाकरण में छन्दगत नियम का उल्लंघन हुआ है। ऐसी सूक्ष्मता से देखा जाये, तो प्राय: प्रसिद्ध छन्दों का संस्कृत-छायाकरण करने से यही स्थिति बनी हुई है।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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