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2. जठराग्नि, 3. बड़वाग्नि, 4. अन्त:अग्नि और 5. दैवी-अग्नुि । इनमें से 'दावाग्नि' तो जंगल में लगने वाली प्राकृतिक (रगड़ से उत्पन्न) अग्नि को कहते हैं। तथा 'जठराग्नि' प्राणीमात्र के पेट में विद्यमान अग्नि है, जो उसके द्वारा ग्रहण किये गये भोजन को पचाने का कार्य करती है। इसीप्रकार 'बड़वाग्नि' समुद्र में विद्यमान वह अग्नि है, जो जल की प्रचंड लहरों के भीषण संघर्षण से उत्पन्न होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार यही अग्नि समुद्र को नियंत्रित रखती है और उसमें बाढ़ नहीं आने देती है। 'अन्त:अग्नि' वह है, जो प्राय: प्रकटरूप में न रहकर विभिन्न पदार्थों के अन्दर निहित होती है तथा परिस्थिति-विशेष में ही प्रकट होती है। ऐसी अग्नि के दृष्टान्तों में विद्वानों ने ज्वालामुखी की आग, शमीवृक्ष ('शमीमिवाभ्यन्तरलीन पावकम् – रघुवंश महाकाव्य, 3/9 तथा 'शमीगर्भादग्निं सन्यसि' -तैत्तरीय ब्राह्मण, 1-1-91), मेघों में निहित अग्नि, जिसे तडित् विद्युत्' भी कहते हैं एवं सूर्यकान्त मणि आदि की अग्नि ली जाती है। तथा दैवी अग्नि' में सूर्य की अग्नि, जिसके ताप से धरती पर जीवन का संचार प्रतीत होता है एवं उल्का, धूमकेतु आदि प्रमुख हैं। वैदिक परम्परा में यज्ञीय अग्नि को भी दैवी अग्नि' कहा गया है, और इसे 'गार्हपत्य', 'आह्वनीय' एवं 'दक्षिण' ये तीन भेद गिनाये गये हैं। भारतीय संस्कृति में कई पौराणिक चरित्र ऐसे हैं, जो अग्नि से उत्पन्न माने गये हैं, यथा— कार्तिकेय (अग्निभूः)। तथा द्रौपदी एवं धृष्टद्युम्न जैसे महाभारत के पात्र भी यज्ञ के हवनकुण्ड की अग्नि से उत्पन्न माने गये हैं। किन्तु मैं इन पौराणिक चर्चाओं में न जाकर अग्नि के वैज्ञानिक आधारवाले निर्विवाद तथ्याधारित स्वरूप का उल्लेख करूँगा, जिसमें जीवत्वशक्ति स्फुटरूप से अनुभूतिसिद्ध है।
आधुनिक वैज्ञानिक यह कहते हैं कि आदिमानव ने क्रमश: विकसित मानसिकता के परिणामस्वरूप दो सूखी लकड़ियों को रगड़कर अग्नि उत्पन्न की थी। इसके पहिले प्राकृतिकरूप से जंगलों में सूखे बाँस व लकड़ियों की रगड़ आदि से अग्नि प्रज्वलित होती थी, किन्तु वह मनुष्य द्वारा अपने प्रयत्न से उत्पन्न अग्नि नहीं थी।
जैन-परम्परा के अनुसार जब भोगभूमियाँ लुप्त होने लगीं तथा कर्मभूमि का युग प्रारम्भ हुआ, तो अन्न को पकाकर कैसे खाया जाये? –इसकी समस्या उत्पन्न हुई। तब प्रजाजन अपनी समस्या लेकर 'कुलकर' के पास गये, जिन्हें 'प्रजापति' भी कहा जाता है। जैन मान्यतानुसार ये 'कुलकर' या 'प्रजापति' वे व्यक्ति कहलाते हैं, जो 'कर्मभूमि' का युग आरम्भ होने पर प्रजा को श्रम करके जीवनयापन की व्यावहारिक शिक्षायें देते थे। तब 'कुलकर' ने उन्हें कहा कि
“मथिदूण कुणह अग्गिं।" – (आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति', 2/1595)
अर्थात् दो पदार्थों को, दो पत्थरों या दो सूखी लकड़ियों आदि को मथकर/रगड़कर अग्नि उत्पन्न करो।
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प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर '2000