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________________ अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का ही शासन प्रवर्तमान है यह अभिप्राय यहाँ ग्रहण करना चाहिए। 4. इस ग्रंथ की प्राप्ति हमें परिपूर्ण ग्रंथ के रूप में होती है, अत: इसकी रचना निर्विघ्न हुई है —ऐसा कहा जा सकता है। ग्रंथ-रचना से पुण्य की प्राप्ति होना तो स्वाभाविक ही है। 5. इस ग्रंथ के मंगलाचरण में कुन्दकुन्द ने अपना वैयक्तिक उद्देश्य भी बताया है कि “मैं साम्यभाव के द्वारा निर्वाण प्राप्त करूँ।” मंगलाचरण गाथाओं का विश्लेषण 1. आदर्श-परम्परा का पालन – इस ग्रंथ की प्रारंभिक पांच गाथाओं में कुन्दकुन्द ने पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया है। दिगम्बर-परम्परा के मूलग्रंथ 'छक्खंडागमसुत्त' में भी पंचपरमेष्ठियों को ही नमस्कार किया गया है। उसी परम्परा का पालन कुन्दकुन्द ने भी किया है। 2. शासननायकत्व - इस समय शासननायक भगवान् महावीर हैं, क्योंकि जैनपरम्परा में जब तक अगला तीर्थंकर नहीं हो जाता, तब तक विगत तीर्थंकर को ही शासननायक माना जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अरिहंत परमेष्ठी के रूप में शासननायक तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर स्वामी को नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार किया है— “पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।” 3. त्रिलोकपूज्यता - आचार्य ने वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करते हुये उनकी त्रिलोकपूज्यता भी ज्ञापित की है। 'सुरासुरमणुसिंद-वंदिदं' अर्थात् जो सुरेन्द्रों-असुरेन्द्रों एवं नरेन्द्रों के द्वारा वंदित हैं, ऐसे भगवान् महावीर को मैं प्रणाम करता हूँ। 4.धोद-घादिकम्ममलं - अर्थात् जिन्होंने कर्मरूपी मल को धो डाला है', यह कहकर आचार्य ने भगवान् महावीर को वीतरागी सर्वज्ञ एवं अनंत चतुष्टय से युक्त बताया है। तथा शेष सभी तीर्थंकरों को भी नमस्कार किया है। पंचपरमेष्ठी को बमब चौथी गाथा में आगत 'अरिहंताणं' शब्द से ज्ञात होता है कि कुन्दकुन्द ने समस्त अरिहंतों के प्रतिनिधि के रूप में शासननायक वर्द्धमान तीर्थंकर को नमस्कार किया है। 'विसुद्धसभावे ससवसिद्धे यह कहकर आचार्य ने विशुद्ध-स्वभाववाले सभी सिद्धों को नमस्कार किया है। 'समणे' – इस पद के द्वारा पंचाचार-युक्त सभी श्रमणों को नमस्कार किया गया है। 'श्रमण' शब्द से अभिप्राय आचार्य, उपाध्याय और साधु — इन तीनों परमेष्ठियों से है। क्योंकि दीक्षा के रूप में तीनों 'साधु परमेष्ठी' ही कहलाते हैं। सामान्यत: आचार्य परमेष्ठी को पंचाचार-परायण' कहा जाता है; लेकिन कुन्दकुन्द ने तीनों परमेष्ठियों को प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 1083
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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