SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'क' उदीय या उत्तरीय विभाषा 'ख' मध्यदेशीय विभाषा 'ग' प्राच्य या पूर्वीय विभाषा प्राकृतभाषा का विकास मध्य भारतीय आर्यभाषा 'छान्दस्' से हुआ है। जो उस समय की जनभाषा रही होगी। लौकिक संस्कृत या संस्कृत भाषा भी छान्दस्' से विकसित है। अत: विकास की दृष्टि से प्राकृत और संस्कृत दोनों सहोदरा हैं। दोनों एक ही स्रोत से उद्भूत हैं। -(प्राकृत साहित्य, पृ० 9) जनभाषा प्राकृत का साहित्यिक स्वरूप ऋग्वेद से वेदांग तक भाषा का स्वाभाविक प्रवाह जैसे ही साहित्य के स्वरूप को प्राप्त करता है, वैसे ही विकृत विभाषाओं का भी स्थान दिखाई देने लगता है। 'द्रविण' एवं 'मुण्डा' आदि भाषाओं के तत्त्व में असंस्कृत एवं जो विकृत रूप थे, वे देश्य या विभाषा के स्वरूप को भी प्राप्त हुए। परन्तु वैदिक भाषा के समानान्तर ध्वन्यात्मक तथा रचना के वैशिष्ट्य को लिए हुए जो भाषा आर्यभाषा में स्थान बना पाई, वह जनभाषा प्राकृत कहलाई। इसका विशाल साहित्य शताब्दियों से यही ध्वनित कर रहा है कि भारत की प्राचीन भारतीय संस्कृति में आर्यों ने जब से विस्तार किया, तभी से प्राकृतभाषा का अपना स्थान है। आगमों में भी 'आर्य' और 'अनार्य' या 'आर्य' और 'म्लेच्छ' – इन दो नामों का उल्लेख किया जाता है। प्राकृतभाषा और उसके साहित्य का स्थान आर्यभाषा में है। आर्य और अनार्य पाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र और पाँच महाविदेह — इन पन्द्रह क्षेत्रों में 'आर्य' और म्लेच्छ' दोनों प्रकार के मनुष्य रहते हैं। 'आर्य' वे हैं, जो धर्मयुक्त अहिंसा, सत्य आदि के निकट हैं और जिनके वचन शिष्ट भी हैं। जिनके वचन तथा आचार-विचार अव्यक्त हैं, वे अनार्य या म्लेच्छ हैं। आर्य में भी तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और विक्रिया आदि ऋद्धि-प्राप्त आर्य हैं। तथा जो ऋद्धि से रहित हैं, वे क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, कार्य, शिल्पार्य, भाषार्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चरित्रार्य – के भेद से नौ प्रकार के हैं। उन सभी के भी अनेक उपभेद हैं। ‘भाषार्य' प्राकृतभाषा में बोलते हैं, उनमें भी ब्राह्मीलिपि की प्रमुखता है। ब्राह्मी लिपि' के लेखन प्रकार निम्न हैं— ब्राह्मी, यवनानी, दोषापुरिका, खरोष्ट्री, पुष्करशारिका, भोगवतिका, प्रहरादिका, अन्ताक्षरिका, अक्षरपुष्टिका, वैनयिका, निहविका, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि, आदर्शलिपि, माहेश्वरी, तामिली, द्राविड़ी और पौलिन्दी। -(प्रज्ञापना, पृ० 88-107) ___ भाषा अवबोध बीजरूप है। उसके स्वरूप भेद-प्रभेद बोलनेवाला व्यक्ति आदि क्या प्रगट कर रहा है या किन विचारों को व्यक्त कर रहा है? —यह भाषा-वर्गणा की प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 0069
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy