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________________ मुक्ति है, जो बाधित करती हैं, रोकती हैं, अवरुद्ध करती हैं और जिनसे स्वतंत्रता का हनन होता है। इसीलिए वह कोई भी चीज या अवस्था, जिस पर उसके विपरीत का प्रभाव या असर पड़ सकता है; मुक्त नहीं है, वह स्वतंत्र नहीं है। और जो स्वतंत्र नहीं है, जो मुक्त नहीं है, जो निरपेक्ष नहीं है; वह अहिंसक नहीं हो सकता। मैं दूसरों की पीड़ा के प्रति तब तक संवेदनशील नहीं हो सकती, जब तक मैं इन परस्पर विरोधी मानवीय क्रियाओं और भावनाओं की बंदिनी हूँ। मैं दूसरे लोगों और उनकी तकलीफों के प्रति संवेदनशील कैसे हो सकती हूँ? जैनदर्शन का 'अनेकान्तवाद' इसका उत्तर देता है। वह कहता है कि सत्य को निरपेक्ष ढंग से बताने या व्यक्त करनेवाला कोई सिद्धांत या सूत्र पूर्ण नहीं है। निर्वाण सम्यग्दर्शन में निहित है, सम्यग्ज्ञान में निहित है, सम्यक्चारित्र में निहित है। अर्थात् आपका विश्वास वैसा हो, आपका कर्म वैसा हो। सरल रूप में इसकी व्याख्या यह हो सकती है कि मेरे करने का तरीका कोई अंतिम तरीका नहीं है। मेरा कहा हुआ पक्ष ही कोई एकमात्र पक्ष नहीं है। और मेरा सत्य ही अंतिम सत्य नहीं है। कई रास्ते हैं, कई पक्ष हैं और सत्य तक पहुँचने के अनेकानेक मार्ग हैं। अपनी आस्था और अपनी दृष्टि की सीमाओं में सभी सही है। लेकिन यह परमशांति और विश्वजनीन प्रेम की अवस्था कैसे प्राप्त की जाये? इच्छायें और उनकी तुष्टि, दूसरों के साथ मेरे संबंधों का आधार नहीं बन सकती। जहाँ तक स्वयं का प्रश्न है, हमारी इच्छायें सिर्फ हमें बेचैन बनाती हैं। उन्हें पाने के लिए और जो पाया है, उसे बचाए रखने के लिए हम चिंतित बने रहते हैं। अंतत: हम एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच जाते हैं, जहाँ उसका सुख भी नहीं ले पाते, जिसकी पहले कामना की थी और जिसे उस कामना और प्रयत्न के बाद पाया था। जहाँ तक दूसरों से संबंध के संदर्भ में इन इच्छाओं और उनकी तुष्टि की भूमिका है, उन संबंधों और मित्र परिजनों को हम अपनी इच्छाओं की तुष्टि का माध्यम बनाने लगते हैं। उन्हें हम अपनी लालसाओं की पूर्ति के लिए, एक वस्तु या उपकरण बना देते हैं। हम उनके निर्वाह की कोशिश इसलिए करते हैं, ताकि अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जब आवश्यकता हो, मैं उनका इस्तेमाल कर सकूँ। इसीलिए जैनधर्म में अपरिग्रह का इतना ज्यादा महत्त्व है। यानि कुछ भी धारण नहीं करना, कुछ भी संचय नहीं करना, कुछ भी नहीं रखना; लेकिन यह अपरिग्रह एकमात्र लक्ष्य नहीं है। इसका प्राप्य है इच्छाओं का विग्रह, क्षुद्र-भावों पर नियंत्रण। पश्चिम में अहिंसा की बात करना आजकल एक फैशन हो गया है, वे उसे एक शक्तिहीन हथियार मानते हैं; अहिंसा की यह गलत अवधारणा है। अहिंसा एक जीवनशैली है, यह एक आदर्श समाज के चिंतन की अभिव्यक्ति है। जो अहिंसा में विश्वास करता है, वह हिंसा का प्रतिरोध करते समय भी उस हिंसा से अप्रभावित रहता है। यह अहिंसा बार-बार होने वाली हिंसा को सोख लेती है। यह निरंतर विस्तृत होने वाली, 00 54 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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