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________________ जीवन की प्रेरणादायी घटना का यहाँ उल्लेख करती हूँ- 'बाई जी को तीर्थवंदना के समय उनके घर चोरी होने का समाचार मिला। परिवार के सभी व्यक्ति दुःखी होकर रुदन करने लगे। बाई जी समता व शांति का परिचय देते हुए बोलीं- "सुकृत से कमाया गया धन आसानी से नहीं जाता। जो धन चला गया, वह वापस मिलनेवाला नहीं है। धन परपदार्थ है। मृत्यु के समय साथ जाने वाला नहीं है। हम यात्रा पूरी करके ही वापस जायेंगे।" जब वे अपने घर वापस पहुँची, तो पाया कि उनका एक भी पैसा चोरी नहीं गया था।' समता व धैर्य की ऐसी जीवन्त प्रतीक थीं चिरोंजाबाई। बाई जी के भावों में बेहद दृढ़ता थी जो ठान लेती थी, अवश्य करती थी। शिरशूल की वेदना, मोतियाबिंद के कारण अंधापन या बैल के मारने पर हाथ का फट जाना कोई भी शारीरिक वेदना उन्हें विचलित कर उनकी प्रसन्नता व सौम्यता का हरण नहीं कर सकी। लोभी डॉ० से मोतियाबिन्द का ऑपरेशन कराने के लिए किसी कीमत पर तैयार नहीं हुईं, जीवन भर अंधा रहना अधिक श्रेयस्कर समझा। एक बार बगीचे में घूमते समय उन्हें एक अंग्रेज सहृदय डॉ० मिला। वह बाई जी की सरलता से बहुत प्रभावित हुआ। उसने बाई जी को धर्ममाता मानकर उनकी आँख का ऑपरेशन किया एवं प्रत्येक रविवार को पूरे परिवार के साथ मांसाहार व शराब का त्याग कर दिया। बाई जी ने उसे पुत्रवत् स्नेह देकर पीयूषपाणि' (जिसके हाथ का स्पर्श अमृत का कार्य करे) का आशीर्वाद दिया, और कहा "तुम्हारे द्वारा अनेक लोगों की वेदना दूर हो।” समता व दृढ़ता की प्रतिमूर्ति बाई सदैव सभी के कल्याण की मंगलकामना करती रहीं। भारतीय अध्यात्म और बाई जी ___ बाई जी का सम्पूर्ण जीवन धर्म की आराधना, अध्ययन-मनन-चिंतन में ही व्यतीत किया। वे मानती थीं कि संकट व दु:ख के समय दुःखी नहीं होना चाहिए; क्योंकि सम्पूर्ण प्राणियों के जीवन-मरण, सुख-दुःख जो भी होता है, वह पूर्वोपार्जितक अच्छे व बुरे कर्मों का फल है। पर वस्तु को इस सुख-दुःख का कारण मानना अज्ञान है, इसलिए उच्चनैतिक जीवन-मूल्यों के पालन में सद्कार्यों में जीवन व्यतीत करना श्रेयस्कर है। वे मानती थीं “सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ।। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य । कुर्यात्पुमान्मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ।।" बाई जी के इस अध्यात्मदर्शन ने आत्मशान्ति का मार्ग प्रशस्त किया। बाई जी ने भारतीय सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों को अपने जीवन में उतारकर जनसामान्य के सामने आदर्श उपस्थित किया और उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 0051
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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