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________________ लज्जा आदि 27 भेद निष्पन्न होते हैं। अंतिम भेद हंसवधू में एक गुरु और 55 लघु वर्ण होते हैं। गाहा में एक जगण' होना श्रेष्ठ बताया गया है। एक जगण से युक्त गाथा कुलवती, दो जगण से स्वयंगृहीता, तीन से रंडा और अधिक होने से वेश्या कहलाती है। इसी प्रकार 13 लघु वर्ण होने से गाहा ब्राह्मणी, 21 लघु होने पर क्षत्रिया, 27 लघु होने पर वैयश्वधू और शेष शूद्रा होती है। जिन गाहा में प्रथम, तृतीया और पंचम या सप्तम स्थान में जगण' हो, तो वह 'गुर्विणी' कहलाती है। प्राकृत काव्य में अवगाहन करने पर इनके उदाहरण प्राप्त किये जा सकते हैं। नाट्यशास्त्र में जाति' नाम से परिभाषित, 'धुवागीति' के अभिधान से नाट्यप्रबन्धों में प्रयुक्त प्राकृतभाषा के गीति छंदों में निबद्ध करके गाई जानेवाली, वाक्य, वर्ण, अलंकार, यति, पाणि और लय के अन्योन्य संबद्ध शास्त्रबद्ध शैली में निबद्ध गाथा-गीति मध्ययुग में दो धाराओं में बँट गई- (i) संगीतधारा और (ii) काव्यधारा। संगीतधारा में गीतिरूप में प्रचलित गाथा का नाम 'ध्रुवगीति' से बदलकर 'ध्रुवपद' हो गया। ध्रुवपद के लिये नाट्यशास्त्र के अनुकरण पर लोकभाषा में ही गाये जाने का नियम प्रचलित रहा। अत: धुव्रपद के बोल 'शौरसेनी' के विकसित लोकभाषारूप ब्रजभाषा में रचे गये। संगीत-क्षेत्र में प्रविष्ट होकर गाथा गीति का ध्रुवपद रूप अपने शास्त्रीय निबंधन में चार अंगों में विभक्त किया गया- स्थायी, अन्तरा, संचारी और आभोग। इन चार अंगों में जो शब्द- रचना गाई जाती थी, वह या तो शृंगार या भक्ति-रस की पद-रचना होती थी, या कवित्त-सवैया आदि छंदों की चतुष्पदी होती थी। गुरु-शिष्य-परम्परा या कुल-परम्परा के अनुसार गान-शैली में कुछ भिन्नता के आधार पर ध्रुवपद-गीति की चार 'बानियाँ' चल पड़ीं, जिन्हें 'घराना' भी कहा जाता है। ये चार बानियाँ हैं- गोबरहरी बानी, खंडार- बानी, अगुरबानी और नोहारबानी। ये बानियाँ संगीत की शास्त्रीय गान शैलियाँ होकर भी काव्य-बाह्य नहीं थी, ध्रुपद-गायक रसखान के सवैये (सफ महेस आदि), सूरदास आदि अष्टछाप कवियों के भक्ति पदों (सूर आयो सीस पर, या रत्नजटित कनकथाल) को धुपद के चतुरंगी साँचे में ढालकर आज भी गाते हैं। चूँकि गाथा वैदिक मंत्रों से सम्बद्ध थी, अत: धुपद के गवैये अपना गान 'ओम्' के उच्चारण से शुरू करते हैं। इनमें कई मुस्लिम घरानों के गायक होने के कारण 'ओम्' को 'नोम्-वोम्' में परिवर्तित कर देते हैं। ___ इस प्रसंग में यह भी नितान्त उल्लेखनीय है भक्तिकालीन पदरचना की परम्परा का मूल उपजीव्य रूप था भगवत्पाद आद्यशंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित 'अष्टपदी' गीति-शैली, जिसमें प्रथम पंक्ति स्थायीरूप में 'ध्रुवपंक्ति' कहलाती है और आगे के पद 'अन्तरा' के रूप में गाये जाते थे। यह नूतन शैली वस्तुत: तत्कालीन प्रचलित लोकगीतियों से ही ग्रहण की गई थी, जो गाथक' या 'गाथिक' कहलाते थे। गायक (गै+थकन्) शुद्ध भावगीति-गायक प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 0029
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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