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________________ (i) उष्णिक जाति "फुल्लिअ-तरुखंडे सुरभि-पवणहदे। विहरदि पदमवणे हंसो सहअरि-परिखुदो।।" (ii) अनुष्टुप् जाति "ताराबंधु एस णहे विक्किरमाणो मेहपडम्। किरणसहस्स भूसिदओ उदयदि सौम्मो रजणिकरो।।" (iv) बृहती जाति “एसो सुमेरु-वणअम्मि देवअ-सिद्धअपरिगीदे। अदि-सुरभि-गंध-वनचारी पविचरदि विहंगम जुवावो।।” (v) पंक्ति जाति “पादवसीसं कंपअमाणो सुरहि गअ-गंड-वासिदओ। उपवण-तरुगण-लासणओ विचरदि वरतणु वणपवणो।।" (vi) त्रिष्टुप् जाति “कुमुदवणस्स विभूसणओ, विधुणिअ तिमिरपडं गगणे। उदअगिरिसिहर महिरुहंतो, रअणिकरो उदयदि विमलकरो।।" (vii) जगती जाति "दिअगण-मुणिगण संथुदओ, तविद-कणअबर-संणिभ-देहो। दुदमिह णहदलमहिरुहमाणो, विअरदि सपदि दिवसकरो।।" ये सभी जातियाँ (लोकगीतियाँ) वैदिक छंदों से संबद्ध मात्रिक जातियाँ कही गई हैं। इनके अतिरिक्त गण एवं मात्राओं के आधार पर 'ध्रुवा' छंदों के इतने प्रकार वर्णित हैं, जिन्हें इस लघु लेख के कलेवर में उद्धृत करना संभव नहीं है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि नाट्यशास्त्र में प्राकृत-गाथाओं को ध्रुवागीतियों के अनिवार्य करके भारतमुनि ने गाथाओं जाति की महत्ता को स्वीकार किया है और उनके सरस भावप्रधान काव्यगुण को सम्मान दिया है। नाट्यशास्त्र की रचना के समय तक प्राकृतगाथा अनेक रूपों में गान की विधा थी। वह एक मात्रिक छंद के साँचे में सीमित नहीं हुई थी। पिंगलाचार्य ने जब अपना सुप्रसिद्ध छन्द:शास्त्र लिखा, तब गाथा के विषय में इतना ही सूत्र लिखा— 'अत्रानुक्तं गाथा।' (8/1) इस सूत्र की व्याख्या में 'हलायुध' ने स्पष्ट किया— “अत्र शास्त्रे नामोद्देशेन यन्नोक्तं छन्दः, प्रयोगे च दृश्यते, तद्गाथोति मन्तव्यम् । गेयपद या गीति होने के कारण संस्कृत के पिंगलशास्त्र में 'गाथा', 'अनुक्त' ही रही; किन्तु जनकंठों में यह निरंतर गूंजती रही और प्राकृतवाणी को शृंगार बनकर गाई जाती रही। रत्नशेखर सूरि ने 'छन्दकोश' में गाथा का छन्दरूप में लक्षण लिखा प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 0027
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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