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________________ गाथा को मंत्र-द्रष्टाओं ने अधिक सम्मान दिया है। ऋग्वेद' के एक मंत्र (9/99/4) में लिखा है कि पावन (पवमान) सोम की वन्दना का सामगान स्त्रोतागण प्राचीन गाथाओं के योग से करते थे, उस समय देवताओं के नामोच्चरण के समय उनकी अंगुलियाँ सोम-छवि प्रदान करती थीं- “तं गाथया पुराण्या पुनानमभ्यनूषत । उतो कृपना धीतयो देवानां नाम बिभ्रती: ।।" ___ अश्विनी-कुमारों के साथ परिणय की वेला में नववधू सूर्या के मंगल परिधान गाथा से परिष्कृत होने उत्प्रेक्षा की गई है कि मानो नववधू के शृंगार के समय विवाहमंगल की लोकगीतियाँ गाई जा रही हों। ऋग्वेद का मंत्र है "रैभ्या सीदनदेयी नाराशंसी न्योचनी। सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम् ।।" - 10/85/6) अर्थात् रैभी (ऋचा) सूर्या की विदा के समय साथ जाने वाली सहेली (यजमान वधू विनोदाय दीयमाना वयस्या अनुदेयी) और नाराशंसी दासी (न्योचनी) बनी। सूर्या का मंगल (भद्र) वस्त्र (वासस्) गाथा से अलंकृत किया गया। एतरेय आरण्यक' के छंदों को ऋचा, कुम्भ्या और गाथा – इन वर्गों में बाँटा गया है। एतरेय ब्राह्मण' (7/18) का कथन है कि “ऋचा दैवी होती है और गाथा मानुषी।” मैत्रायणी संहिता' (3/76) में कहा गया है कि "विवाह-लग्न के प्रसंग में 'गाथा' गाई जाती थी।" इससे प्रकट होता है कि गाथा-भाव गीतों का मूलस्वरूप रहा होगा। एतरेय ब्राह्मण' (17/18) में शुन:शेप की कथा को 'शतगाथम्' कहा गया है और 'शतपथ ब्राह्मण' (11/5/7) में गाथा छंद को 'मात्रिक' बताया गया है। वैदिक साहित्य में ही नहीं, अपितु जेन्द अवेस्ता' में भी मंत्र-भाग के छंदों को 'गाथा' कहा गया है। 'काठक संहिता' (14/5) और तैत्तिरीय ब्राह्मण' (1/32/6-7) में उल्लेख है कि गाथा गायकों से गाथा-गान के बदले दान या मूल्य नहीं लेना चाहिये। इन उल्लेखों से सिद्ध है कि वैदिक युग में गाथा मंत्रभाग के साथ ही लोकप्रचलित गीति थी, उसका स्वरूप मात्रिक भी था; किन्तु छन्द रूप में उसका लक्षण न मिलने से लगता है कि वैदिक गाथा प्राय: 'अनुष्टप्' जैसे वर्णिक वृत्तों पर ही आधारित रही होगी। ___ महर्षि वाल्मीकि के मुख से जब 'अनुष्टुप' जैसे वैदिक छंद का आदिकाव्य में अवतरण हुआ और लौकिक संस्कृत में उसे नूतन छन्द का अवतार माना गया; तब से रामायण, महाभारत और उसके बाद पालिभाषा के बुद्धवचनों और जातकों में गाथा छंद लुप्त हो गया। अत: अनुमान किया जाता है कि मात्रिक गाथायें मूलत: भारोपीय छंद या मूल वैदिक छंद न होकर वैदिक आर्यों से पूर्व भारत में रहने वाली जातियों, संभवत: द्रविड़ जातियों के लोकसाहित्य की देन है। द्रविड-संपर्क कारण आर्यों में प्रचलित मात्रिक गेयपदों को 'गाथा' नाम से पुकारा जाने लगा होगा। बाद में भी नाट्य-परम्परा में धुवागीतियों प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 1025
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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