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________________ यथा प्रस्तुत द्वितीय चित्र में तोतों के झुण्ड का सादृश्य हरे रंग की मणियों के तोरण से उपस्थित किया गया है, जिसमें मूर्त या प्रस्तुत के अमूर्तीकरण या अप्रस्तुतीकरण के माध्यम से मनोरम चाक्षुष बिम्ब का विधान हुआ है; और फिर तृतीय चित्र में मन्द-मन्द हवा से हिलती-बजती धान की बालियों में ध्वनि-कल्पना से प्रसूत चामत्कारिक श्रावण बिम्ब के साथ ही फसल चुगने वाले पक्षियों को उड़ाने जैसे गतिशील चाक्षुष बिम्ब का उद्भावन किया गया है। पुन: चतुर्थ चित्र में पथिकों द्वारा मधुर इक्षुरस पीने के वर्णन के माध्यम से आह्लादक आस्वादमूलक बिम्ब की निर्मिति की गई है। इसी क्रम में आदिपुराण महाकाव्य के 'षष्ठ पर्व' में वाग्विदग्ध महाकवि जिनसेन की उदात्त कल्पना द्वारा निर्मित जिनमन्दिर का चाक्षुष स्थापत्य-बिम्ब दर्शनीय है : य: सुदूरोच्छ्रितैः कूटैर्लक्ष्यते रत्नभासुरैः। पातालादुत्फणस्तोषात् किमप्युद्यन्निवाहिराट् ।। यद्वातायननिर्याता धूपधूमाश्चकासिरे। स्वर्गस्योपायनीकर्ते निर्मिमाणा घनानिव।। यस्य कूटतटालग्ना: तारास्तरलरोचिषः। पुष्पोपहार - सम्मोह - मातन्वन्नभोजुषाम् ।। सवृत्त-संगताश्चित्र-सन्दर्भ-रुचिराकृति:। य: सुशब्दो महान्मह्यां काव्यबन्ध इवाबभौ ।। -(श्लोक-संख्या, 180, 185-87) अर्थात् रत्नों की किरणों से सुशोभित उन्नत शिखरों वाला वह जिनमन्दिर ऐसा दिखाई पड़ता था, जैसे फण उठाये शेषनाग पाताललोक से निकला हो। उस मन्दिर के वातायनों से निकलते मेघाकार धूप के धूम ऐसे लगते थे, जैसे वे स्वर्ग को उपहार देने के लिए नवीन मेघों की रचना कर रहे हों। पुन: उस मन्दिर के शिखरों के चारों ओर चमकते तारे देवों के लिए पुष्पोहार का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे। उस जिनमन्दिर में सद्वृत्त या सम्यक्चारित्र के धारक मुनियों का निवास था, वह अनेक प्रकार के चित्रों से सुशोभित और स्तोत्र-पाठ आदि के स्वर से मुखरित था। इसप्रकार वह पूरा जिनमन्दिर महाकाव्य की तरह प्रतीत होता था। ___ यहाँ महाकवि ने जिनमन्दिर को महाकाव्य से उपमित किया है। इस सन्दर्भ में जिनमन्दिर के जो चित्र प्रस्तुत हुए हैं, उनमें प्रथम चित्र में उपमान और उत्प्रेक्षाश्रित इन्द्रियगम्य सर्पराज शेषनाग का बिम्ब उद्भावित हुआ है। फण उठाये शेषनाग का भयोत्पादक बिम्ब प्रत्यक्ष रूप-विधान का रोमांचक उदाहरण है। पूरे जिनमन्दिर की चित्रात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने में महाकवि द्वारा संश्लिष्ट बिम्बों की रम्य-रुचिर योजना हुई है। मन्दिर की खिड़कियों से निकलते धूप के धूम का सादृश्य स्वर्ग के लिए 00 16 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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