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________________ (6) पुस्तक का नाम : भारतीय परंपरा में व्रत : अवधारणा तथा विकास : डॉ० चन्द्रमौलि मणि त्रिपाठी लेखक : ऋत्विज प्रकाशन, 34, संस्कृत नगर, रोहिणी, सेक्टर-14, दिल्ली- 85 : प्रथम संस्करण 1999 : 66/- रुपये, पृष्ठ 176, डिमाई साईज, पेपर- गत्ते की जिल्द । भारतीय-परम्परा में दो मूलधारायें रहीं, एक प्रवृत्तिमार्गी और दूसरी निर्वृत्तिमार्गी । निवृत्तिमार्गी धारा में श्रमण आते थे, जिन्हें वैदिक ऋषियों ने 'व्रात्य' संज्ञा दी है। क्योंकि वे “हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्” के नियमानुसार हिंसा आदि पाँचों पापों से विरक्त होकर 'व्रत' अंगीकार करते थे । प्रारंभिक अवस्था में इन व्रतों को वे प्राथमिक स्तर पर धारण करते थे, अत: उन्हें 'अणुव्रती' कहा जाता था तथा पूर्णतया पापों से विरक्त होरे पर वे ‘महाव्रती' कहलाते थे । अतः 'व्रत' अंगीकार करने की परम्परा मूलतः जैन श्रमणों की है । इन व्रतों को धारण करने एवं व्रत का उपदेश देने से वे 'व्रात्य' भी कहलाते थे। इसी तथ्य के दृष्टिगत रखते हुये वैदिक ऋषियों ने श्रमणों को 'व्रात्य' संज्ञा से अभिहित किया है। तथा उन्हें पर्याप्त सम्मान भी दिया है । निष्पक्ष आधुनिक विद्वानों ने भी इस तथ्य को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है। किन्तु इस पुस्तक के लेखक महोदय ने संभवत: इन तथ्यों का या तो अपने अनुसंधानकार्य अवलोकन ही नहीं किया है; या फिर पूर्वाग्रह के कारण इन तथ्यों की उपेक्षा करके 'व्रात्यों' को वैदिक-परम्परा का सिद्ध करने की असफल चेष्टा की है। उनके मननार्थ मैं यहाँ कतिपय साक्ष्य इस संबंध में प्रस्तुत कर रहा हूँ प्रकाशक संस्करण मूल्य व्रात्य वृषभदेव 'व्रात्य आसीदीयमान् एव स प्रजापतिं समैश्यत् । ' - ( अथर्वेद, 15 / 1 ) व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को धर्म की शिक्षा और प्ररेणा दी। 'व्रात्यः संस्कारहीन:' - ( अमरकोश, 8 /54 ) व्रत और व्रात्य 'न ता मिनन्ति मायिनो न धीरा व्रता देवानां प्रथमा ध्रुवाणि । न रोदसि अद्रुहा वेद्याभिर्न पर्वता निनमे तस्थिवांसः । ।' - (ऋग्वेद, 3/5/56/1 ) देवों द्वारा गृहीत ध्रुव व्रत को माया, मिथ्या और निदान नष्ट नहीं कर सकते तथा धीर मनुष्य भी उनकी अवहेलना नहीं करते । पृथ्वी और आकश अपनी सम्पूर्ण ज्ञात प्रजाओं के साथ उनके व्रतों का विरोध नहीं करते । स्थिरता के साथ अवस्थित पर्वत नमनीय नहीं हुआ करते। 094 प्राकृतविद्या + जनवरी-मार्च 2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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