SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में 'अनुष्टुप्' छन्द इतना प्रसिद्ध रहा है कि वह पद्य का पर्यायवाची ही बन गया। संस्कृत-भाषा की प्रकृति के अनुसार 'अनुष्टुप्' वह छन्द है, जो प्रत्येक प्रकार के भाव को व्यक्त करने में सक्षम हैं। यही कारण है कि करुण, वीर, श्रृंगार, विलास, वैभव, अनुराग, विराग प्रभृति विभिन्न प्रकार की अभिव्यंजना इस छोटे से छन्द में पाई जाती है। ईसापूर्व 6-7वीं सदी से ही लोकभाषाओं ने जब काव्य का आसन ग्रहण किया, तब भाव-लय के साधन 'छन्द' में भी परिवर्तन हुआ। यों तो वैदिक-काल में ही गाथा-छन्द का अस्तित्व था। ऋग्वेद में 'गाथा' शब्द 'छन्द' और 'आख्यान' इन दोनों ही अर्थों में प्रयुक्त है। पर यह गाथा-छन्द प्राकृत का वह निजी छन्द बना, जो अनुराग-विराग एवं हर्ष-विषाद आदि सभी प्रकार के भावों की अभिव्यंजना के लिये पूर्ण सशक्त है। यही कारण है कि प्रवरसेन-(द्वितीय), वाक्पतिराज और कुतूहल जैसे कवियों ने प्रेम, शृंगार, युद्ध एवं जन्मोत्सव आदि का वर्णन इसी छन्द में किया है। वाक्पतिराज ने अपने 'गउडवहीं नामक काव्य में आद्यन्त 'गाथा छन्द' का ही प्रयोग किया है। अतएव स्पष्ट है कि प्राकृत के कवियों की दृष्टि से सभी प्रकार की भावनाओं की अभिव्यंजना इस एक छन्द में भी संभव है। __ प्राकृत के पश्चात् ई० सन् की छठवीं सदी से ही जब अपभ्रंश ने काव्य-भाषा का आसन ग्रहण किया, तो दोहा' छन्द 'अनुष्टुप्' के तृतीय संस्करण और 'गाथा' के द्वितीय संस्करण के रूप में उपस्थित हुआ। यह दोहा-छन्द' मात्रिक छन्द है और मात्रिक-छन्दों का सर्वप्रथम प्रयोग प्राकृत में प्रारम्भ हुआ। इसका प्रधान कारण यह है कि मात्रिक-छन्दों के बीज लोक-गीतों में पाये जाते हैं। संगीत को रागिनी देने के लिये मात्रिक-छन्द ही उपयुक्त होते हैं। तुक का मिलना ही संगीत में लय उत्पन्न करता है। यही कारण है कि सम और विषम चरणों में तुक मिलाने की पद्धति संगीत के लिये विशेष प्रिय हुई। दोहा छन्द, जिसमें कि दूसरे और चौथे चरण में तुक मिलती है, अपभ्रंश के लिये अत्यधिक प्रिय रहा है। जितना भी प्राचीन अपभ्रंश-साहित्य है, वह सब दोहों में लिखा हुआ ही मिलता है। कडवक-पद्धति का आविर्भाव कब और कैसे हुआ, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। महाकवि स्वयम्भू ने अपने रिठ्ठणेमिचरिउ' की उत्थानिका में पूर्ववर्ती शास्त्रकारों और कवियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा है— छड्डणिय दुवइ धुवएहिं जडिय चउमुहेण समप्पिय पद्धडिया -(रिट्ठ० 1/2/11) ____ अर्थात् कवि चउमुह ने 'दुवई' और 'ध्रुवकों' से जड़ा हुआ ‘पद्धड़िया-छन्द' समर्पित किया। इस उल्लेख से इतना स्पष्ट है कि चउमुह कवि ने 'धुवक' और 'दुवई' के मेल से पद्धड़िया-छन्द का प्रयोग किया है। अपभ्रंश के प्रबन्ध-काव्य में व्यवहृत 'कडवक' इसी पद्धड़िया-छन्द का विकसित रूप है। आलंकारिकों ने 'सर्ग: कडवकाभिधः' - (साहित्यदर्पण, 6/327) कहकर कडवकों को 'सर्ग' का सूचक माना है। संस्कृत का सर्गः' शब्द प्राकृत प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 4087
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy