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________________ डरो नहीं बन्धुओ ! इन्द्र सपरिवार चला। लो, वीणा के तार बजे, घुघरन की झंकार बजी, तांडव के सब साज सजे, लो डमक-डमक डमरू बजा; करताल बजी, सुरताल बजी, सारंगी की राग बजी, इन्द्र भी भूल चुका था अपने को ऐसी वहाँ सुर-सारंग बजी, फिर थिरक-थिरक सब अंग हिले, आँखें मटकी, पलकें मटकी मटक-मटक कर पाँव हिले। मीठा जब ये राग सुना, मन भक्ति का तूफान बना, फिर मेरी अँखियों ने मीठी अंगड़ाई ली, वे खो गई थीं मीठे सपनों में, उन्होंने समा लिया था अपने को अपने में। फिर सूरज निकला, रजनी भागी, तारे सोये, दुनिया जागी; दुनिया के संग मैं भी जागा, किन्तु मैंने पाया क्या? वो सरिता का तट सूना पाया, फिर मुख से मेरे निकल पड़ाकब गया, कहाँ गया? वह सिद्धार्थ का लाडला। वैशाली और महावीर सुना, यहीं उत्पन्न हुआ था किसी समय वह राजकुमार । त्याग दिये थे जिसने जग के भोग-विलास, साज-शृंगार ।। जिसके निर्मल जैन धर्म का देश-देश में हुआ प्रचार । तीर्थंकर जिस महावीर के यश अब भी गाता संसार ।। है पवित्रता भरी हुई इस विमल भूमि के कण-कण में । मत कह, क्या-क्या हुआ यहाँ इस वैशाली के आँगन में ।। -(साभार Homage to Vaisali) जैन विद्वानों से अपील "ऐ जैनी पंडितो ! यह जैनधर्म आप ही के आधीन है। इसकी रक्षा कीजिये, द्योति (प्रकाश) फैलाइये, सोते हुओं को जगाइये और तन-मन-धन से परोपकार और शुद्धाचार लाने की कोशिश कीजिये, जिससे आपका यह लोक और परलोक – दोनों सुधरें।" । —ब्र० शीतल प्रसाद जी (हिन्दी 'जैन गजट', 24 मई सन् 1896 ई० के अंक में प्रकाशित लेख का अंश) (साभार उद्धृत, जैन जागरण के अग्रदूत', पृष्ठ 29) प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 1079
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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