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“सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवदि मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि ।
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अर्थ:- आगम के सूत्रग्रंथों सही तथ्य दिखाये जाने पर भी जो उसे नहीं मानता है, ( तथा अपने पूर्वाग्रह पर दृढ़ रहता है), तो वह व्यक्ति तत्काल मिथ्यादृष्टि हो जाता है किंतु यह कथन तो आगम के वचनों का ज्ञान न होने पर अन्यथा प्ररूपण कर देने वाले सम्यग्दृष्टि के प्रति है। तथा जिन्हें अध्यात्म तत्त्व - विषयक चर्चा भी न सुहाये, मूल तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में ही सही निर्णय न हो; उनके तो 'प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन' का भी विश्वास होना कठिन है ।
आत्मज्ञान एवं आत्मध्यान ही 'अध्यात्मविद्या' के मूल प्रतिपाद्य विषय हैं तथा इन्हीं से 'मिथ्यात्व कर्म' नष्ट होकर जीव आत्मसाधना के पथ या मोक्षमार्ग पर अग्रसर होता है। यह प्रक्रिया ‘असंयत सम्यग्दृष्टि' नामक चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाती है। इस बारे में आचार्य ब्रह्मदेव सूरि लिखते हैं
“जितमिथ्यात्व-रागादित्वेन एकदेशजिना: असंयतसम्यग्दृष्टयादयः ।”
- ( वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 1 की टीका, पृष्ठ 5 ) यहाँ पर असंयतसम्यग्दृष्टि को 'एकदेशजिन' संज्ञा का प्रयोग ध्यातव्य है । जयसेनाचार्य ने तो मिथ्यादृष्टि को छोड़कर शेष सभी को साधकों को 'एकदेशजिन' संज्ञा दी है— “सासादनादि-क्षीणकषायान्ता एकदेशजिना उच्यन्ते ।”
- ( 'पवयणसार', गाथा 101 की 'तात्पर्यवृत्ति' टीका) अर्थ:— 'सासादन' नामक द्वितीय गुणस्थान से लेकर 'क्षीणकषाय' नामक बारहवें गुणस्थान- पर्यन्त सभी के 'एकदेशजिन' कहा गया है I
इसीप्रकार ‘भावपाहुड' गाथा 1 की टीका में स्पष्टरूप से 'श्रावक' शब्द का भी उल्लेख करते हुए ‘अविरतसम्यग्दृष्टि' को 'एकदेशजिन' कहा गया है—
“सप्तप्रकृतिक्षयं कृत्वैकदेशजिना: सद्दृष्टयः श्रावकादयः ।”
अर्थ:— मिथ्यात्व कर्म की तीन एवं अनंतानुबंधी कषाय की चार - इसप्रकार सात प्रकृतियों को नष्ट करके सम्यग्दृष्टि श्रावक आदि भी 'एकदेशजिन' कहलाते हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'स्वसंवेदन' को ही 'सम्यग्दर्शन' कहा है“स्वसंवेदनं सद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश ।”
- (धवला, 1/1/1/4, पृष्ठ 150 ) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से ही धर्मध्यान का स्वामित्व आचार्यों ने प्रतिपादित किया है— “किं च कैश्च धर्मस्य चत्वार स्वामिन: स्मृता: ।
सद्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्ता
यथायोग्य - हेतुना ।।”
प्राकृतविद्या�जनवरी-मार्च 2000
— (आ० शुभचन्द्र, 'ज्ञानार्णव', 26/ 28 )
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