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श्रुतज्ञान और अंग-वाङ्मय
-राजकुमार जैन
जैन-आम्नाय में मूलसंघ की परम्परा के अनुसार जो श्रुत का संरक्षण एवं वर्गीकरण हुआ है तथा उनमें से जो आज मिलता है; इसके बारे में संक्षिप्त, किंतु सप्रमाणरीति से इस आलेख में विवरण प्रस्तुत किया गया है। परम्परा के प्रतिबोध एवं उपलब्ध साहित्य के प्रति उत्तरदायित्व का संकेत करता हुआ यह आलेख अवश्य उपयोगी सिद्ध होगा।
-सम्पादक
वर्तमान में धार्मिक ग्रंथों के रूप में आचारशास्त्र के रूप में, नीतिशास्त्र के रूप में. गणितशास्त्र, ज्योतिषग्रंथ, आयुर्वेदग्रंथ, व्याकरणग्रंथ आदि के रूप में तथा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग के रूप में तथा इन चारों अनुयोगों के अन्तर्गत समाविष्ट समस्त ग्रंथों के रूप में जो भी वाङ्मय या साहित्य समुपलब्ध है, वह सब जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की देशना (दिव्यध्वनि) से सम्बद्ध है। तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि को अवधारण करनेवाले उनके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति ने भगवान की देशना को धारणकर, उसे द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व के रूप में प्रतिपादित किया था। द्वादशांगरूप यह सम्पूर्ण वाङ्मय 'द्वादशांग श्रुत' कहलाता है और उस द्वादशांग श्रुत के पारगामी 'श्रुतकेवली' कहलाते हैं।
जिनशासन में ज्ञान के धारकों में दो प्रकार के ज्ञानी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैंप्रथम प्रत्यक्षज्ञान के धारक और द्वितीय परोक्षज्ञान के धारक । प्रत्यक्षज्ञान के धारकों में केवलज्ञानी' का और परोक्षज्ञान के धारकों में 'श्रुतकेवली' का पद महत्त्वपूर्ण होता है। जैनदर्शन में ज्ञान के पाँच भेद प्रतिपादित किये गये हैं—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान । ये पाँचों ज्ञान द्विविध प्रमाण रूप होते हैं। इनमें मतिज्ञान
और श्रुतज्ञान परोक्ष-प्रमाण रूप तथा अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण रूप माने गये हैं।
उपर्युक्त पाँचों ज्ञानों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केवलज्ञान है, जो मोक्ष की प्रतिपादक है। तत्पश्चात् श्रुतज्ञान को महत्त्वपूर्ण माना गया है। केवलज्ञान के धारक केवली' या केवलज्ञानी' कहलाते हैं। वे समस्त चराचर जगत् को प्रत्यक्ष देखते और जानते हैं। वे तीनों लोकों में स्थित समस्त पदार्थों की समस्त पर्यायों —अवस्थाओं के त्रिकालाबाधित
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000