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________________ अत: जब 'मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कंद-प्रसन-बीजानि' आदि इनका सचित्त-अचित दोनों प्रकार से अभक्ष्य और भोगोपभोग के अंतर्गत त्याग हो चुका है, तो यहाँ प्रकरणवश कहा गया मान लेना चाहिये। इसके पश्चात् सचित्त में जो ठंडा छना जल और नमक जो सचित्त माना जाता है, उसे लेना होगा। उनका त्याग इस प्रतिमा में है, यह निश्चित होता है। यहाँ सकलकीर्ति-कृत 'श्रावकाचार' के अनुसार मूलफल आदि अभक्ष्य (त्याज्य) माने गये है, जिनको यहाँ 'सचित्त' शब्द द्वारा बताया गया है। ___मुनिराज के आचारग्रंथ 'मूलाचार' गाथा 827 में भी जो ‘फल-कंद-मूल-बीय' आदि बतला चुके हैं, उसका भी समाधान उक्त प्रकार ही है। किन्तु प्रश्नकर्ता लिखता यह है कि हमें प्रथम द्वितीय शताब्दी या प्रमुख बट्टकेर आचार्य द्वारा किये गये समाधान ही मान्य होंगे।' अत: इस 827 नं० की गाथा, जो सूत्ररूप में है, व्याख्यारूप में आचार्य वसुनंदि द्वारा की गई व्याख्या के अनुसार बतलानी होगी। उपगाथा में चार पृथक्-पृथक् पद है:- 1. फलानि कंदमूलानि, 2. बीजानि, 3. अनाग्निपक्वानि ये भवंति, 4. अन्यदपि आमकं यत्किंचित् । तदनशनीयं ज्ञात्वा नैवं प्रतीच्छति नाग्युपगच्छंति ते धीराः।। अर्थ:—कंदमूल फल (यह स्वतंत्र शब्द है) और 2. बीज (यह अंकुरोपति की उपेक्षा अभक्ष्य है), 3. जो दूसरे फल अग्नि में नहीं पकाये हैं, तथा 4. इसके सिवाय जो भी सचित्त कच्चा (ठंडा छना हुआ जल, नमक आदि) पदार्थ हैं, उसे 'सचित्त' या 'अभक्ष्य' मानकर साधु को नहीं देना चाहिये और न साधु लेते हैं। ऐसे साधु धीर होते हैं। यहाँ तीसरे नंबर में अनग्निपक्व फलों में सभी जो भक्ष्य फल हैं. वे डाल या पाल में पके हुए होते हैं, किंतु संदिग्ध होने से अग्नि में पकाकर ही काम में लिये जाते हैं। इस गाथा के विषय के समर्थन में 'मूलाचार' की ही गाथा निम्नप्रकार है: “णट-रोम-जंतु-अट्ठी-कण-कुंडय-पूय-चम्म-सतिर-मज्झाणि । बीय-मूल-कंद-मूला-छिवणाणि मला चउदसा होति ।। 484।। यहाँ अर्थ में 134 आहार-संबंधी 'मल-दोष' वर्णित हैं, जो 46 दोषों के अंतर्गत माने गये हैं। ये नख, रोम, हड्डी, रुधिर, मांस, बीज, कन्द, मूल फल आदि हैं। ये मुनिराज के आहार में आ जायें, तो वह भोजन त्याज्य हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि नवधाभक्ति के बाद मुनिराज के आहार में कन्द-मूल आदि के अग्निपक्व होने पर भी त्याज्य माने जाने से ये अभक्ष्य ही हैं। _ 'भावपाहुड' (आचार्य कुन्दकुन्दकृत) गाथा 103 में भी पं० जयचन्दजी छाबड़ा ने बतलाया है कि “कंदमूलादि सचित्त यानै अनंत जीवनि की काया होने से अभक्ष्य हैं। इनके खाने से अनंत स्थावर जीवों का घात होकर अनंत संसार में भटकना होता है।" 'श्रावक धर्मसंग्रह' में कन्द-मूलादि को अनंतर स्थावर (बादर) एवं सशंकित त्रस-जीवों से सहित बतलाया है। 40 44 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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