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________________ सीढ़ी पर जैसे-जैसे अग्रसर होती जाती है, वैसे-वैसे ही अघातिया-कर्म रूपी सुदृढ़ अंजनकूट (शिखर) भी क्रमश: तड़ातड़ टूटते जाते हैं। जिसप्रकार अत्यधिक लाड़-दुलार में पली हुई भामिनी के नृत्य के हाथ-भाव ताल की एक-एक कम्पन पर साकार हो उठते हैं, उसीप्रकार साधक की आत्म-साधना से उसकी कर्म-जंजीरें एक-एक कर टूटती जाती हैं। अपनी तपस्या और गहन-साधना से आत्मा ने अज्ञान-अन्धकाररूपी दानव की शल्यरूपी शलाकाओं को मानों चुनौती ही दे डाली है और ललकार कर कहा है कि “अब मैं अपने प्रकाश (ज्ञान) के समक्ष तुझे पराजित करके ही रहूँगी।" तिमिररूपी अज्ञान तथा कृष्ण अर्थात् कलुषित शरीर के साथ लावण्यमयी राधा अर्थात् यह चैतन्यात्मा अभी तक भ्रमवश रास कैसे रचाती चली आ रही है? अर्थात् पौद्गलिक जड़ शरीर में कर्मलिप्त आत्मा कैसे आनन्द मनाती चली आ रही है? —यही आश्चर्य का विषय है। 'सोऽहं' के जप का मर्म “सोहमित्यात्तसंस्कारतस्मिन् भावनया पुन:। तत्रैव दृढ संस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थिति।।" -(आचार्य पूज्यपाद, समाधितन्त्र 28) अर्थ:- आत्मा की भावना करनेवाला आत्मा में स्थित हो जाता है। सोऽहं' के जप का यही मर्म है। महाकवि भास और 'श्रमण' महाकवि भास की दृष्टि में 'श्रमण' अवैदिक भी थे और नग्न दिगम्बर भी। इसका उन्होंने अपने 'अविमारक' नामक नाटक में स्पष्ट प्रमाण दिया है विदूषक– “भेदि ! अहंको, समणओ?" (सम्मान्या ! मैं कौन हूँ? श्रमण हूँ क्या?) चेटी“तमं किल अवेदिगो।" (तुम तो अवैदिक हो, अर्थात् श्रमण हो) इससे स्पष्ट है कि भास के समय (ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी) में भारतवर्ष में श्रमणों को 'अवैदिक' कहा जाता था। ___इसी नाटक में आगे वे श्रमण को नग्न दिगम्बर भी प्रमाणित करते हैं—“आम भोदि ! जण्णोपवीदेणं बम्हणो, चीवरेण रत्तपडो। जदि वत्थं अवणेमि, समणओ होमि।" (ठीक है सम्मान्या ! यज्ञोपवीत से ब्राह्मण और चीवर से रक्तपट अर्थात् बौद्धभिक्षु जाने जाते हैं। यदि मैं वस्त्र त्याग कर दूंगा, तो मैं श्रमण हो जाऊँगा।) उक्त वाक्य से उगे हुए सूर्य की भाँति स्वत: प्रमाणित है कि महाकवि भास के काल में श्रमण नग्न दिगम्बर ही होते थे और वस्त्रावेष्टित श्वेताम्बरों का अभ्युदय उस समय नहीं हुआ था। इस तथ्य को डॉ० ए०सी० पुसालकर प्रभृति विद्वानों ने भी सत्यापित किया है। प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 40 37
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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