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________________ में उसका अध्ययन अनिवार्यरूप से कराया जाता था। जैन एवं जैनेतर परीक्षालयों ने भी उसे अपने पाठ्यक्रमों में निर्धारित किया था । किन्तु पता नहीं क्यों, सन् 194546 के बाद से उसके स्थान पर 'लघु सिद्धान्त' एवं 'मध्य सिद्धान्त कौमुदी' तथा भट्टोजी दीक्षित- कृत 'सिद्धान्त - कौमुदी' का अध्ययन कराया जाने लगा । और आज तो स्थिति यह आ गई है कि समाज या तो 'कातन्त्र - व्याकरण' का नाम ही नहीं जानती अथवा जानती भी है, तो उसे जैनाचार्य लिखित एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के गौरव -ग्रन्थ के रूप में नहीं जानती। यह स्थिति दुख:द ही नहीं, भयावह भी है। आवश्यकता इस बात की है कि जैन पाठशालाओं में तो उसका अध्ययन कराया ही जाय, साधु- संघों से भी सादर विनम्र निवेदन है कि वे अपने संघस्थ साधुओं, आर्यिकाओं, साध्वियों एवं व्रतियों को भी उसका गहन एवं तुलनात्मक अध्ययन करावें, समाज को भी उसका महत्त्व बतलावें और विश्वविद्यालयों में कार्यरत जैन - प्रोफेसरों को भी यह प्रयत्न करना चाहिये कि वहाँ के पाठ्यक्रमों में कातन्त्र - व्याकरण को भी स्वीकार किया जाय, जिससे कि हमारा उक्त महनीय ग्रन्थ हमारी ही शिथिलता से विस्मृति के गर्भ में न चला जाये । परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी इस दिशा में अत्यधिक व्यग्र हैं । वे स्वयं ही दीर्घकाल से कातन्त्र-व्याकरण का बहुआयामी अध्ययन एवं चिन्तनपूर्ण शोधकार्य करने में अतिव्यस्त रहे हैं। जब उन्हें यह पता चला कि केन्द्रीय प्राच्य तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, वाराणसी के वरिष्ठ उपाचार्य डॉ० जानकीप्रसाद जी द्विवेदी तथा केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ लखनऊ के डॉ० रामसागर मिश्र ने कातन्त्र - व्याकरण पर दीर्घकाल तक कठोर-साधना कर तद्द्द्विशयक गम्भीर शोध कार्य किया है, तो वे अत्यधिक प्रमुदित हुए। उन्हें कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली में आमन्त्रित किया गया, उनसे चर्चा की गई तथा उन्हें आगे भी शोध-कार्य करते रहने की प्रेरणा दी गई है। जैन विद्याजगत् को यह जानकारी भी होगी ही कि पिछले मार्च 1999 को डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी के लिये उनके कातन्त्र-व्याकरण-सम्बन्धी मौलिक शोध कार्य का मूल्यांकन कर कुन्दकुन्द भारती की प्रवर-समिति ने उन्हें सर्वसम्मति से पुरस्कृत करने की अनुशंसा की थी । अतः कुन्दकुन्द भारती के तत्वावधान में पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के सान्निध्य में दिल्ली - जनपद के विद्वानों एवं विशिष्ट नागरिकों के मध्य एक लाख रुपयों के 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' से उन्हें सम्मानित भी किया गया था । जैन समाज से मेरा विनम्र निवेदन है कि वह अपने अतीतकालीन गौरव-ग्रन्थों का स्मरण करे, स्वाध्याय करे उनके महत्त्व को समझे तथा उसके शोधार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिये उन्हें पुरस्कृत / सम्मानित भी करती रहे, जिससे कि अगली पीढ़ी को भी उससे प्रेरणायें मिलती रहें और हमारे गौरव-ग्रन्थों की सुरक्षा भी होती रहे। प्राकृतविद्या + जनवरी-मार्च 2000 OO 29
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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