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________________ सूर्य से और दीपक से भी मिलता है। यदि कोई दीपक से पदार्थ-दर्शन के स्थान पर अपने वस्त्र जला ले, तो यह उसका दुरुपयोग होगा। यदि विज्ञान से विध्वसंक-प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण किया जाता है और निर्माण अथवा मानव-कल्याण में उसको विस्मृत किया जाता है, तो यह दीपक लेकर कयें में गिरने के समान होगा। ___ इसे ही कहते है—हयोपादेयविज्ञान' । यदि ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् भी इतनी उपलब्धि नहीं हुई, तो शास्त्रपाठ शुकपाठ' ही रहा। 'व्यर्थं श्रम: श्रुतौ' कहते हुए 'क्षत्रचूड़ामणि'-कार ने इसकी भर्त्सना की है। वस्तुत: जिसने अन्न को अपना रस, रक्त, माँस बना लिया है, उसी ने आहार का परिणाम प्राप्त किया है; किन्तु जिसके आमाशय में अजीर्ण-दोष है, वह उदर में रखने मात्र से अन्नभुक्ति के आरोग्य-परिणाम को प्राप्त नहीं कर सकता। जो ज्ञान को ऊपर से ओढ़कर घूमता है, उसके उत्तरीय को कभी कोई उतार ले सकता है; परन्तु जिसने ज्ञान को स्वसम्पत्ति के रूप में उपार्जित किया है, उसे कोई छीन नहीं सकता; अत: ज्ञानोपार्जन में ज्ञान की पवित्रता के साथ-साथ उसे अपने से अभिन्न प्रतिष्ठित करने की महती आवश्यकता है। जब अग्नि और उष्णता, जल और शीतलता के अविनाभावी-सम्बन्ध के समान गुण और गुणी एकरूप हो जाते हैं, तभी उनमें अव्यभिचारिभाव का उदय होता है। ज्ञानी और ज्ञान भी आधाराधेय मात्र न रहकर प्राण-सम्पत्ति होने चाहिये। ऐसे ज्ञान की उपासना में मनुष्य को शास्त्राग्नि में प्रवेश करना पड़ता है। विदग्ध' वही होता है, जो सुवर्ण के समान आगम-वह्नि-विशुद्ध हो। यदि ज्ञान-प्राप्ति में अपने को तपाया नहीं, श्रम तथा तप की अग्नि का साक्षात् उपासना नहीं की, तो वह ज्ञान 'अदु:ख-भावित-ज्ञान' है। ज्ञान को तप द्वारा पाने से यह आगे तप्त नहीं होता, ज्ञान में संसार के सभी दु:खों का चिन्तन कर लेने पर ज्ञान दु:खों से परित्राण करने में समर्थ होता है। कच्चा कुम्भ जैसे जलस्पर्श से विगलित हो जाता है, वैसे कोरा ज्ञान दु:ख की आँच में दग्ध हो जाता है; अत: परिपक्व ज्ञान-प्राप्ति का उपाय-चिन्तन करना चाहिए। यह ज्ञान मनुष्य-भव में ही हो सकता है, अत: प्राप्त करने में आलस्य नहीं रखना चाहिये। आचार्य गुणभद्र ने 'आत्मानुशासन' (94) में कहा है कि 'प्रज्ञा (ज्ञान) दुर्लभ है और यदि इसे इस जन्म में प्राप्त नहीं किया, तो अन्य जन्म में यह अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि अन्य जन्म मनुष्य पर्यायवान् हो, यह लिखित प्रमाण पत्र नहीं है; अत: एक जन्म का प्रमाद कितने इतने जन्मों के अन्तर विशोधनीय हो, यह अनिर्वचनीय है। धीमानों ने इसी हार्द को लक्ष्य में रखते हुए कहा है—'प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि' अर्थात् प्राणान्त होना ही मृत्यु नहीं है, प्रमाद ही मृत्यु है। अप्रमत्त को मृत्यु एक बार आती है; परन्तु प्रमादी प्रतिक्षण मरता है। 'प्रमादे सत्यध:पातात्' यही कहता है। परिग्रहों का विसर्जन प्रमाद की उर्वरभूमि मोह है। मोह के उदय से राग-द्वेष का उदय होता है। राग-द्वेष प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 00 11
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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