SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंग में ध्यान का स्वरूप "तथाहि - ध्यानं ध्यानसंतानस्तथैव ध्यानचिन्ता (चिंताशब्दो ज्ञान-सामान्यवचन:) ध्यानान्वयं सूचयति। तत्रैकाग्र्यचिंतानिरोधो ध्यानम्। तच्चं शुद्धाशुद्धरूपेण द्विधा । अथ ध्यानसंतान: कथ्यते—यत्रान्तर्मुहूर्तपर्यन्तं ध्यानं, तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं तत्त्वचिंता, पुनरप्यन्तर्महूर्तपर्यन्तं ध्यानं, पुनरपि तत: चिंतेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवदन्तर्मुहूर्तेऽन्तर्महूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसंतानो भण्यते। स च धर्मध्यान-सम्बन्धी।" -(आचार्य जयसेन, प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति टीका, गाथा 196) अर्थ:-ध्यान, ध्यान की संतान (सन्तति या परम्परा), ध्यान-चिंता (चिंताशब्द ज्ञानसामान्य का वाचक है) एवं ध्यानान्वय का सूचन इसप्रकार है एकाग्र (एक-अग्र आत्मा ही है) चिंता-निरोध को 'ध्यान' कहते हैं। वह ध्यान शुद्ध और अशुद्धरूप से दो प्रकार का है। अब 'ध्यान-संतान' का कथन किया जाता है—'यहाँ अन्तर्मुहूर्त तक ध्यान उसके बाद अन्तर्मुहूर्त तक तत्त्व-चिंता, पुन: पुन: अन्तमुहुर्त तक ध्यान फिर तत्त्व-चिंतन करते हैं। (प्रचिंतन छठे में विश्राम लेकर) इसप्रकार प्रमत्त और अप्रमत्त छठवें-सातवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त तक झूलते रहते हैं। अत: अन्तर्मुहूर्त जाने के बाद पुन: पुन: परावर्तन सहज होता ही रहता है। इसी को 'धर्मध्यान संतान' कहा है। . जघन्य-अन्तर्मुहूर्त का सूक्ष्म समय एक सेकण्ड से भी कम का होता है। भिन्न अन्तर्मुहूर्त का काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और भी कम ही होता है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त 48 मिनिट है। ____ व्याप्य-व्यापकभाव, ज्ञेय-ज्ञायकभाव, वेद्य-वेदकभाव एवं आधार-आधेयभाव का ज्ञान ही आत्मध्यान में प्रमुख सहायक है। इसके बिना आत्मध्यान की कल्पना भी कठिन है। 'समयपाहुड' में प्रमुखत: इनका वर्णन इस दृष्टि से संकेतित है, विशेषत: आचार्य अमृतचन्द्र के 'आत्मख्याति' नामक अमृतभाष्य में। इसके ज्ञान-चिंतन के अभ्यास से श्रमण प्रमत्तसंयत-अप्रमत्तसंयत रूप छठे-सातवें गुणस्थानों में झूलते हैं एवं प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में आत्मानुभूति करते हैं। व्याप्य-व्यापक आदि भावों के विषय में पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी का अध्ययन एवं चिंतन अत्यन्त सूक्ष्म एवं गहन है। इसी के कारण जैन आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान की उन्हें अच्छी पकड़ है। इस विषय में उनकी रुचि एवं प्रवृत्ति भी रहती है, जो कि सम्पूर्ण श्रमण-परम्परा को एक अनुकरणीय आदर्श है।
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy