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________________ अभिमत • 'प्राकृतविद्या' अप्रैल - जून 199 का अंक प्राप्त कर मन प्रसन्नता से भर गया। सभी लेख भावपूर्ण एवं अपने विषय में महत्त्वपूर्ण हैं, जिससे यह अंक और अधिक विशिष्ट बन गया है। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज का लेख 'पहिले तोलो फिर बोलो' वक्ताओं के लिए उनके सुदीर्घ जनसम्बोधन अनुभव पर आधारित मार्ग-निर्देशन के गाम्भीर्य की अभिव्यक्ति है। जिसका सभी को लाभ उठाना चाहिए और अपनी सम्बोधन शैली इसके अनुरूप बनानी चाहिए। आचार्यश्री की स्वयं की प्रवचन - शैली सर्वांग परिपूर्ण, गहन अध्ययन एवं चिन्तन पर आधारित सर्वजन - प्रशंसित है । डॉ० सुदीप जैन के दोनों लेख 'प्रातिभ - प्रतिष्ठा की परम्परा और जैन प्रतिभायें’ एवं 'जैन सम्राट् खारवेल' संबंधी शोधपूर्ण हैं । वे जमकर लिखते हैं, नए तथ्यों की परत खोलते हैं। प्राकृतभाषा-विषयक सभी लेख बहुत शोधपूर्ण, परिश्रम से लिखे गये हैं। पंडितप्रवर श्री नाथूलाल जी शास्त्री का लेख तथ्यपरक, समाधानात्मक है। मित्र आचार्य राजकुमार जैन आयुर्वेद - संबंधी लेखों के सिद्धहस्त लेखक हैं। उनका लेख परिश्रमपूर्ण है। प्रिय (डॉ० ) अनुपम जैन भी जैन शोधलेखों मर्मज्ञ लेखक हैं। उनका लघु-लेख सुन्दर है। उत्कृष्ट लेखों द्वारा पत्रिका की उच्चस्तरीय शोध प्रवृत्ति स्वयं सिद्ध है। आपके सम्पादन-परिश्रम के लिए साधुवाद। - सतीश कुमार जैन, अहिंसा इंटरनेशनल ** © 'प्राकृतविद्या' (अप्रैल - जून 299 ) का अंक प्राप्त हुआ, धन्यवाद। इस अंक में सब लेख पढ़ने योग्य हैं। भाषायें व जैनधर्म की कुछ विशेष बातों की जानकारी इस पत्रिका के माध्यम से हो सकती है। इस पत्रिका के लिये हार्दिक शुभकामनायें हैं। जैन- जगत् की पत्रिकाओं में इस पत्रिका का स्थान ऊँचे दर्जे का है। प्राकृतविद्या अंक में प्रेरक-व्यक्तित्व' लेख डॉ० अभय प्रकाश जी जैन पढ़ा, पढ़कर बहुत खुशी हुई। पाश्चात्य विद्वान् हर्मन - जैकोबी व डॉ० जगदीशचंद जी जैन दो मुख्य महानुभावों के जीवन दर्शन पर जानकारी हुई। विदेशों में जैनधर्म के प्रति अनुराग रखने वालों से सम्पर्क किया जाये । इस विशेष बात को ध्यान में रखकर एक संगोष्ठी का चुनाव भी किया जाये । —एस०ए० माणकराण सिंघवी, वंदेवासी, तमिलनाडु ** • 'प्राकृतविद्या' अप्रैल-जून 299 में प्रकाशित आपके गवेषणापूर्ण लेख 'जैन सम्राट् खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख के कतिपय अभिनव तथ्य' के प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई । प्रभु आपको सरस्वती-सेवा करते रहने की निमित्त चिरायुष्य प्रदान करे । – रत्नचन्द्र अग्रवाल, जयपुर ** • 'प्राकृतविद्या' का अप्रैल-जून '99 ई० का अंक मिला, धन्यवाद । अंक न केवल मुखावरण, साजसज्जा में आकर्षक हैं, बल्कि सारगर्भित सामग्री से भी अलंकृत है। श्रद्धेय प्राकृतविद्या← जुलाई-सितम्बर '99 92
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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